“मेरा शरीर ही मैं
हूँ” ऐसा एक और भ्रम होता हैl अब इस भ्रम से भी छुटकारा पाना हैl इसका अर्थ ऐसा नहीं कि हम अपना शरीर ही छोड़ देंl
हमारा अपने शरीर के साथ जो तादात्म्य है अर्थात यह शरीर ही मैं हूँ ऐसा जो भ्रम है
उसे छोड़ देना हैl इस भ्रम से छुटकारा पाने के लिए श्रीगुरु
बतलाते हैं कि ‘तत्वमसि’ अर्थात “वह तुम हो“l वह ब्रह्म तुम हो, तुम शरीर नहीं होl यदि यह अभ्यासपूर्वक हमें स्वीकार्य हो जाये तो हमारा भ्रम दूर होगाl इसके लिये ‘पंचकोशविवेक’ नामक विवेक हमें करना होगाl
अन्नमयकोश, मनोमयकोश, प्राणमयकोश, विज्ञानमयकोश और
आनंदमयकोश इस प्रकार
पांच कोश हैंl उसी तरह चार
शरीरों के अभ्यास का भी एक विचार हैl ये चार शरीर हैं :
स्थूल ,सूक्ष्म ,कारण और महाकारणl इस पंचकोश और चारों शरीरों
के अभ्यास को करने से “मैं शरीर नहीं हूँ” इस अनुभव की व्यवस्था हो जाती हैl
यह अभ्यास ध्यान के बिना नहीं किया जा सकताl ‘तत्वमसि’ इस महावाक्य का ‘तत्’ अर्थात
ब्रह्म, यह हम समझ चुके हैंl वह ब्रह्म मैं हूँ ,यह भी हम
समझ चुके हैंl अर्थात तत्वज्ञान के द्वारा हम यह समझ चुके
हैं कि “मैं ब्रह्मरूप हूँ”l लेकिन जो ज्ञान
तत्वज्ञान से मिला उसका रूपान्तर अभ्यास में, साधना में करना हो तो उसके लिए कुछ
प्रक्रियाएं उपयोग में लाना पड़ती हैंl ये कौन सी प्रक्रियाएं हैं? ये हैं पंचकोश की प्रक्रिया और
चार शरीरों की प्रक्रियाl ये मनुष्य की बनाई हुई प्रक्रियाएं
हैंl कोई जादूगर की तरह इन्हें हमारे सामने ले आया हो ऐसी
बात नहीं हैl मनुष्य के द्वारा निर्धारित ये प्रक्रियाएं
उपयोग में लाने के बाद, उन्हें छोड़ देना हैl केवल साधना के
लिए ही उनका उपयोग हैl यदि ऐसा नहीं किया गया तो हम
प्रक्रिया की जांच पड़ताल में ही जुट जायेंगेl कहाँ हैं वे
पांच शरीर? मैं डाक्टर होने के कारण आलोचक मुझसे पूछते हैं कि आपने Dissection
किये हैं ना! क्या आपको पांच कोश नजर आये? अब तो मुसीबत हो गईl इन प्रश्नों के क्या उत्तर दिए जा सकते हैं? निश्चित ही “नहीं नजर आये” यही कहना पड़ता हैl फिर हम वेदांती भी अनेक डाक्टरों से
हमेशा प्रश्न पूछते हैं कि आपने दिमाग का आपरेशन किया है उस समय क्या आपको
‘मन’ नामक तत्व मिला था? इसका उत्तर भी नकारात्मक ही मिलता हैl क्या मन नामक तत्व आपको माइक्रोस्कोप में से नजर आया? इस प्रश्न का भी
“नहीं“ ऐसा ही उत्तर मिलता हैl तो फिर क्या “मन” नहीं होता?
“मन” है लेकिन दिखाई नहीं देताl उसी तरह
“आत्मा” के बारे में भी हैl
आत्मा है किन्तु समझ में नहीं आताl यही बात कुछ तरीके से
बतलाना पड़ती हैl उसके बिना प्रश्न पूछने वाले को समझाना कठिन
होता हैl डिसेक्शन करने के बाद भी मन नहीं मिल पाया, बुद्धि
नामक चीज भी नहीं मिली, फिर भी मन नामक तत्व है इसके बारे में किसी के भी मन में
कोई शंका नहीं होतीl
पंचकोशों की प्रक्रिया देखने के बाद पांच कोश “मैं” नहीं हूँ” और “मैं” पांच
कोशों के भी परे हूँ यह समझ में आता हैl यह ध्यान की एक प्रक्रिया हैl चार
शरीरों के परे भी “मैं” हूँ, ऐसा समझ में आना भी
ध्यान की एक अन्य प्रक्रिया हैl ध्यान की ये
प्रक्रियाएं भलीभांति समझ लेना है और फिर उन प्रक्रियाओं का उपयोग करना हैl इन प्रक्रियाओं से जो अनुभव प्राप्त होगा उसे अपनाकर प्रक्रिया को छोड़
देना हैl इतना धैर्य और समझदारी यदि हम में हो तो
यह ध्यान बहुत आसान हो जाता हैl वैसे देखा जाए तो हम में व्यावहारिक समझदारी तो
होती ही हैl डाक्टर कहते
हैं कि शरीर के फलाने हिस्से का एक्स-रे निकाल कर ले आयेंl
तो एक व्यक्ति एक्स रे निकालने रेडीयोलॉजिस्ट के
पास गयाl रेडीयालॉजिस्ट ने उसे एक्स-रे मशीन के
सामने खड़े होने के लिए कहाl
इस पर उसने पूछा कि “सोना क्यों नहीं? खड़े ही क्यों रहना है? अब हो गई मुश्किल! वह
व्यक्ति आगे कहता है कि “मैं इस मशीन को ठीक से देख समझ लूं तभी एक्स-रे निकलवाऊँगाl“ यदि ऐसा
कोई व्यक्ति कहे तो सभी बातें समझकर एक्स रे निकालने तक उसके स्वर्ग पहुँचने की
संभावना ही अधिक हैl
यह सीधा हिसाब हैl इसका सरल सा अर्थ है कि एक निश्चित प्रणाली है जो एक्स रे मशीन में
इस्तेमाल की जाती हैl उस प्रणाली या तकनीक के उपयोग से एक्स-रे चित्र हमें
प्राप्त होता हैl
जिसप्रकार एक्स-रे निकालते समय हम जैसा बताया जाये वैसी अवस्था में बैठकर
या खड़े रहकर मशीन से एक्स-रे प्राप्त करते हैं और उसका
मूल्य चुकाते हैं और वहां न हम मशीन की जांच करते हैं न ‘क्यों’ या ‘कैसे’ ऐसे
प्रश्न पूछते हैंl
ठीक उसीतरह हमें यहाँ करना हैl शास्त्र बतलाते हैं कि पंचकोश
इस प्रकार से होते हैंl चार शरीर इस - इस तरह से होते हैंl वे
जैसे हैं उन्हें वैसा ही स्वीकार करना है और ध्यान के द्वारा एक – एक कोश को पीछे
छोड़ते हुए अगले कोश में प्रवेश करना हैl पाँचों ही कोश पीछे
छोड़ देने पर जो बाकी बचता है “वह तुम हो” “- तत्वमसि” - इस श्रीगुरु के द्वारा प्रदत्त बोध का अनुभव
लेना हैl इस प्रकार से श्रीगुरु द्वारा दिया गया बोध अनुग्रह
कहलाता हैl इसीकारण “तत्वमसि” महावाक्य अनुग्रह का एक
अपरिहार्य भाग हैl “तत्वमसि” महावाक्य समझाकर बतलाते समय “‘वह तुम हो”’ इस अनुभव को प्राप्त करने के लिये जो प्रक्रिया
बतलाई जाती है, वह सब भी अनुग्रह का ही एक भाग हैl अनुग्रह देने में यदि एक भी प्रक्रिया नहीं
बतलाई जाती, “तत्वमसि” महावाक्य भी नहीं बतलाया जाता, ‘तत्’ पद, ‘त्वं’ पद और
‘असि’ पद का स्पष्टी करण नहीं दिया जाता, तत् पद का वाच्यार्थ ब्रह्म और त्वं पद
का वाच्यार्थ तुम एक जीव हो ऐसा नहीं दिया जाता, तो अनुग्रह ‘संदिग्ध‘ कहा जायेगाl यह अनुग्रह देने वाले की जिम्मेदारी है कि वह ये सारी बातें धीरे धीरे
समझ में आ जायें ऐसी व्यवस्था कर देl ध्यान की प्रक्रिया
द्वारा एक एक कर पाँचों कोश पीछे छोड़ देने पर जो तत्व बाकी रहता है वही ‘सत्’ तत्व
हैl उसका वर्णन स्वामी रामदासजी ने “असतचि असे“
अर्थात “होता ही है” इसप्रकार से किया हैl वह तत्व
पांच कोशों से भी अतीत, चारों शरीरों से परे, नित्यप्राप्त और चारों शरीरों तथा
पांचों कोशों का प्रकाशक हैl प्रारम्भ से हम जिस ओवी को
सन्दर्भ में लेकर चल रहे है उसका उत्तरार्ध है : “बंधन काही आत्म्याला l बोलों चि नये ll“ अर्थात आत्मा को कोई बंधन नहीं है, न तो पंचकोशों का और न चार शरीरों
काl लेकिन “मैं शरीर हूँ” ऎसी जो मेरी भ्रान्ति
है उससे बाहर निकलने के लिये चारों शरीरों को क्रम से एक के बाद एक कर ध्यान की
प्रक्रिया द्वारा पीछे छोड़ते हुए उस तक पहुँचना हैl और इस
तरह जाने से गुरुवाक्य के आधार से भ्रान्ति दूर होती हैl
एक भ्रांति और है - “कर्तृत्व भोक्तृत्व भ्रान्ति“l यह तीसरी भ्रांति है जिसकी निवृत्ति
गुरुवाक्य से होती हैl प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि वह
कर्ता हैl वास्तव में कर्ता न होते हुए भी यह सोचना कि “मैं
कर्ता हूँ“, एक भ्रम हैl उदाहरण के रूप में कहें तो मैं एक
डाक्टर हूँ मेरा कर्तृत्व या काम दिखाने के लिये मैं कहता हूँ कि “मैं था इसलिए
पेशेंट बच गयाl अगर मैं न होता तो पता नहीं क्या हो जाता?“
और साथ ही यह कहने से भी नहीं चूकता कि “किसी दूसरे के चक्कर में पड़ जाता तो पता
नहीं पेशेंट का क्या होता?” मेरे इस कथन में, मेरे इस
विचार में ही मेरे कर्तृत्व का भ्रम नजर आता हैl “मैं कर्ता हूँ“ ऐसी हमारी भ्रामक भूमिका और दृष्टिकोण होने
के कारण हमें अत्यंत दुःख होता हैl परमार्थ हमारे दुःख दूर
करने के लिये ही हैl यह बात सतत रूप से हमारे मन
मस्तिष्क में अंकित रहना चाहियेl यह दुःख मैंने अपने आप पर स्वयं ही थोप लिया हैl
इन तीनों भ्रमों से और दुखों से मुझे छुटकारा मिल जाये तो मैं आनंदमय जीवन व्यतीत कर सकूंगा, ऐसी सुन्दर व्यवस्था वेदान्तशास्त्र में, परमार्थशास्त्र
में हैl
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