Friday, May 13, 2016

अनुग्रह - भाग ३

          अब आगे प्रश्न आता है कि अनुग्रह किसे लेना चाहिये? अनुग्रह लेने में किसी को भी कोई रोक-टोक नहीं है l जिसे भी अनुग्रह लेने की इच्छा हो, अनुग्रह ले सकता हैl  क्योंकि देनेवाले का तात्विक दृष्टि से ‘मोक्ष‘ ही अंतिम ध्येय है, लेकिन स्वीकार करने वाले में न्यूनाधिक भाव रहता हैl यह न्यूनाधिक भाव अधिकार की दृष्टि से रहता है l संत तुकाराम ने कहा है :- अधिकार तैसा करू उपदेश l साही ओझे त्यासी तेंचि द्यावे ll अर्थात जिसका जैसा अधिकार हो उसे वैसा ही उपदेश करेंगेl उसके सर पर उपदेशों का, साधना का, उतना ही बोझ या भार रखेंगे जितना वह सह सकता होl

अधिक भी नहीं देंगे और कम भी नहीं देंगेl जिसे अंग्रेजी में underutilization कहते हैं वह भी नहीं होना चाहिए और वह overburdened भी नहीं होना चाहियेl इस तरह दोनों प्रकार का तारतम्य सम्हाल कर अनुग्रह दिया जाता हैl अनुग्रह लेने की इच्छा अनेक कारणों से हो सकती हैl ऐसी इच्छा किसी भी कारण से हो अच्छी ही समझना चाहिएl जीवन में एक नया और अच्छा दालान खुलने का संकेत मानना चाहिएl यदि वह इच्छा आगे भी कायम रही तो उस दालान में बहुत सी छुपी हुई भव्य और दिव्य बातें नजर  आयेंगीl अनुग्रह मांगने के क्या कारण हो सकते हैं? किसी व्यक्ति ने अनुग्रह लिया है ऐसा पता लगता है और उसने लिया है तो हम भी ले लें, ऐसी इच्छा होकर बड़ी सहजता से कभी-कभी अनुग्रह लिया जाता हैl  कहीं कुछ साधना भी की जाती है – जब संभव हो तब, जैसी संभव हो वैसी और यदि संभव हुई तो! पूर्व के अच्छे कर्मों और प्रयत्नों से यदि साधना में निरंतरता बनी रही, तो एक ऊँचा स्तर प्राप्त होता हl साधना की एक विशिष्ट ऊँचाई हासिल होने के बाद यह ध्यान में आता है कि एक ऊँचा स्तर तो मिला लेकिन जिसे संतोष कहते है, वह अभी मुझे प्राप्त नहीं हो पाया हैl उस संतोष को पाने के लिए मुझे ऐसा कौनसा एक तत्व मिलना चाहिये जो विशिष्ट व्यक्ति के रूप में साकार हुआ है? मैं यहाँ तत्व की भाषा में बात कर रहा हूँ, व्यक्ति की भाषा में नहीं l ऐसा तत्व ‘सद्-गुरु’ है l उपनिषद में कहा है ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवतिl’ अर्थात जो ब्रह्म जानने वाला है वह ब्रह्मरूप ही होता हैl उसमें और ब्रह्म में किंचित भी अंतर नहीं होताl मुंडक उपनिषद में कहा गया है कि ऐसा कोई व्यक्ति जब मुमुक्षू को मिलेगा और जिस क्षण वह मिलेगा तभी अनुग्रह होगा और उसी क्षण मुमुक्षू कृतार्थ हो जाएगाl ऐसे सद्गुरु जब मिलें तब ही अनुग्रह लेना चाहिये, ऐसी प्रथा है और ऐसी परम्परा हैl इस तरह, कई लोगों ने लिया है इसलिए हम भी ले लें जैसे सामान्य स्तर से लेकर मुमुक्षू, उपासक के ऐसे उच्च स्तर तक के, अनुग्रह मांगने वाले लोग होते हैंl देनेवाले की दृष्टि में जो परम्परा से पहले से चला आ रहा है वही उसे आगे आनेवाले व्यक्ति को देना है और अलग हो जाना हैl लेकिन वास्तव में अलग नहीं होना हैl यदि हाथ थामा है तो अलग नहीं हटना हैl लेकिन अनुग्रह देनेवाला हाथ थाम भी ले, फिर भी लेनेवाला उसके साथ रहे आदि बहुत सारी बातें लेनेवाले के पास होनी चाहियेl लेनेवाले अनुग्रह तो ले लेते हैं लेकिन फिर देनेवाले के साथ रहें तब तो बात बनें! छोटे बच्चे हों तो हाथ पकड़ कर चला सकते हैं, एकाध धौल भी जमा सकते हैं, लेकिन ये अनुग्रह लेनेवाले व्यक्ति काफी उम्र-दराज होते हैंl हाथ थाम भी लो तो कब छुड़ा लें कह नहीं सकतेl फिर बड़ी मुश्किल हो जाती हैl स्वामी समर्थ रामदासजी के ‘दासबोध‘ नामक ग्रन्थ में ‘शिष्य लक्षण‘ नामक एक अध्याय है, जिसे वे समास कहते हैंl उसका अध्ययन करने पर हमें पता चल जाता है की हम कितने पानी में हैंl उस अध्ययन के बाद हमें अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता है और फिर हम एक विशिष्ट उंचाई तक पहुँच पाते हैंl वहां भी वही अनुग्रह है, वही साधना है, तत्वज्ञान भी वही होता हैl लेकिन उस उंचाई पर पहुँच कर उस अनुग्रह की जो साधना है, जो प्रक्रिया है, उस अनुग्रह का जो तत्वज्ञान है वह पूरा का पूरा फलीभूत होता हैl उस उंचाई पर पहुँचने तक सभी बातें वही होते हुए भी, बिना उस उंचाई पर पहुंचे कुछ भी फल नहीं मिलताl शिष्य की अधिक आगे बढ़ने के पहले की साधना और आगे बढ़ जाने के बाद की साधना में यही अंतर हैl

            अब तक हमने संक्षेप में विचार किया है कि अनुग्रह देनेवाला कैसा होना चाहिये, अनुग्रह लेनेवाला कैसा होना चाहिए और अनुग्रह का स्वरुप कैसा होता हैl साधारण रूप से ऐसी धारणा रहती है कि अनुग्रह अर्थात सर पर हाथ रखनाl यह सत्य हैl सर पर हाथ रखना अनुग्रह का निश्चित तौर पर एक भाग हैl लेकिन सिर्फ वही भाग अनुग्रह नहीं हैl अनेक प्रकार से अनुग्रह दिया जाता हैl उदाहरण स्वरुप अंगूठा दबाना नामक एक तरीका होता हैl बारह तेरह प्रकार से अनुग्रह दिया जा सकता हैl हम यहाँ उनका वर्णन नहीं करने जा रहेl जिस तरह से सम्प्रदाय चलता आ रहा है, उस सम्प्रदाय की जो भी रीति रही है, उसी रीति के अनुसार अनुग्रह दिया जाता हैl इसलिए प्रत्येक सम्प्रदाय की अनुग्रह करने की पद्धति अलग अलग होती हैl उसमे श्रेष्ठ या कनिष्ठ ऐसा कुछ नहीं होताl इसलिए यह अच्छा, वह बुरा, यह सही वह गलत,स तरह से विचार नहीं करना चाहियेl वरना हम समझते हैं कि एक विशिष्ट प्रक्रिया यदि अपनाई गई हो तभी अनुग्रह होता है वरना नहीं होताl हमें ऐसा भी लगता है कि यदि हमें अनुग्रह के समय वैसा नहीं हुआ तो उस सम्प्रदाय का अनुग्रह हमें मिला ही नहींl हमें ऐसा अन्यथा ही लगता रहता है और फिर अनुग्रह का जैसा होना चाहिये वैसा लाभ नहीं होताl

प्रारम्भ में एक विचार बतलाया था कि अनुग्रह में शक्ति संक्रमण या शक्ति संचार नामक एक बात होती है l इस  शक्ति संक्रमण या संचार का अनुभव अनेक लोगों को होता हैl लेकिन कुछ लोगों को कुछ भी अनुभव नहीं होता l देनेवाला एक ही होता हैl  वह देते समय कम या अधिक नहीं देताl फलाना ऐसा है इसलिए उसे थोड़ा कम दें और ढिमका वैसा है इसलिए उसे सामुदायिक अनुग्रह दिया जाय या किसी को निजी तौर पर दिया जाय ऐसा अनुग्रह देने वाले की मन में भी नहीं आताl  हाँ! लेकिन इस तरह से अनुग्रह देनेवाले भी कुछ लोग पाए जाते हैंl उदाहरण स्वरुप पांच रुपयों का अनुग्रह वे देते हैंl कोई गुप्त रूप से अनुग्रह लेना चाहे तो पांच सौ रुपयों का अनुग्रह देने के प्रकार भी होते हैंl ये विकृत कल्पनाएँ हैंl यदि देने वाला वही है और जो देना है वह जैसा का तैसा दिया जाता हो तो ऐसा भेद करने का कोई कारण ही नहीं हैl जो कुछ भी फर्क है वह लेनेवाले की क्षमता में होता हैl यह अगर ध्यान में रखा जाय तो ठीक, वरना फलाने व्यक्ति को ऐसा अनुभव हुआ और मुझे तो कुछ भी वैसा नहीं हुआ, अतः यह भेदभाव हुआ हैl ऐसा विकल्प अनुग्रह लेनेवाले के मन में पैदा होता हैl

            रामकृष्ण परमहंसजी की अति सुन्दर कथा हैl कुछ शिष्यों ने उनपर ऐसा ही आरोप किया था कि वे व्यक्ति देखकर अनुग्रह देते हैंl व्यक्ति की क्या बात देखकर वे अनुग्रह देते होंगे यह बात शिष्यों ने खुद ही तय कर ली थीl जैसे धनवान है, विद्वान् है, सिफारिश से आया है इ. इ.l यहाँ यह देखें कि व्यावहारिक जीवन की सभी आदतें लेकर ही शिष्य परमार्थ के क्षेत्र में आये हैंl अतः जो वास्तव में निश्चित रूप से करना चाहिए, उसके बजाय जो इस क्षेत्र में बिलकुल नहीं करना चाहिए वही पकड़कर हम बैठ जाते हैं और उसके आधार पर कुछ उलटे-पुलटे, अनुकूल-प्रतिकूल विचार करते रहते हैंl फिर बड़ी मुश्किल हो जाती हैl

            रामकृष्ण परमहंसजी पर जब इस प्रकार का आरोप किया गया, तब एक दिन उन्होंने ऐसा निश्चित किया कि इन लोगों की किच-किच और झंझट हमेंशा के लिए समाप्त कर दी जायl ऐसे ही करीब पांच –एक सौ लोग एकत्रित थेl उनमें प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर रामकृष्ण परमहंसजी हाथ रखाl हर एक में शक्ति का सन्चार कियाl शक्ति संचार के बाद जो व्यक्ति तैयार थे, सक्षम थे, वे शांत हो गए, स्तब्ध हो गए, उनकी समाधि लग गई। जो तैयार नहीं थे वे नाचने लगे , पागलों  की तरह चेष्टाएँ करने लगे, चिल्लाने लगे, बडबडाने लगेl उन्हें वह शक्ति का संचार सहन नहीं हो पायाl इतना कुछ होने के बाद उनके शिष्यों के ध्यान में आया कि वे जो आरोप लगा रहे थे वे ठीक नहीं थेl उनकी अपनी क्षमता ही कम पड़ रही थीl देनेवाले ने जो देना है वही सभी को दिया हैl रामकृष्ण परमहंस बहुत बड़ा और महान व्यक्तित्व हैl उन्हें भावसम्राट कहते हैंl सारे भाव एक स्थान पर एकत्रित रहें ऐसा वह स्वरुप हैl उनकी कथा जानबूझकर ही बतलाई है ताकि यह ध्यान में आ जाये कि अनुग्रह देनेवाला सभी को एक ही चीज देता है लेकिन अनुग्रह लेनेवालों में व्यक्ति के अनुसार कम या अधिक अधिकार होता हैl उसके कारण अनुग्रह देते समय भेदभाव हुआ होगा ऐसा न समझते हुए स्वयं में ही कुछ कमी है यह ध्यान में आ जाये तो अपना अधिकार बढाने की इच्छा निर्माण होती हैl  फिर हम अपना अधिकार बढ़ा सकते हैंl हर एक व्यक्ति अपना अधिकार बढ़ा सकता हैl इस सन्दर्भ में अनेक अनुभव सामने आते हैंl कुण्डलिनी जागृत हो सकती हैl कुण्डलिनी जागृत होने पर पेट में, कमर में, दर्द की लहर उठने से लेकर फूट-फूट कर रोने जैसे हर तरह के अनुभव होते हैंl कहीं कहीं इनमें से एक भी बात नहीं होती और अनुग्रहित साधक अत्यंत शान्तिपूर्वक बैठा रहता हैl इसके अलावा भी कोई तीसरा अनुभव भी हो सकता हैl उसे कुछ भी नहीं होताl वह शांत भी नहीं होता, रोता चिल्लाता भी नहीं हैl इसका कारण है कि कुछ होने जैसा वहां कुछ रहता ही नहीं हैl शक्तिसंचार के बाद दोनों एक से नजर आते हैंl परमार्थ क्षेत्र में एक बड़े मज़े की बात है कि वह व्यक्ति जिसे वास्तव में अनुग्रह का उपयोग हुआ है और वह जिस पर कोई परिणाम नहीं हुआ है, वे दोनों ही एक से दिखाई देते हैंl लेकिन अपने आप में वे बहुत अलग होते हैंl संत तुकाराम ने कहा है :-

एक तटस्थ मानसी l एक सहज चि आळसी l दोन्ही दिसती सारखी l वर्म जाणे तो पारखी ll  - तुकाराम गाथा १६७

अर्थात जिस व्यक्ति की अंतःकरण वृत्ति आत्माकार हो चुकी है वह भीतर से स्तब्ध, शांत हैl वहीँ एक अन्य व्यक्ति आलस्य से सुस्ता रहा है इसलिए शांत हैl बाहर से लोगों को दोनों एक से दिखाई देते हैं कि दोनों शांत हैंl लेकिन जो पारखी हैं जो जानकार हैं, वे जानते हैं कि दोनों में क्या अंतर हैl  अब इतना ध्यान में आने के बाद अनुग्रह का अर्थ क्या है यह समझ में आयेगाl इसे अनुग्रह का शक्ति संक्रमण या शक्ति संचार कहते हैं और यह संक्रमण पिछले समय से आगे तक चलता आ रहा है l इस परम्परा को ही सम्प्रदाय कहते हैंl इन सम्प्रदायों में प्रारम्भ से या कहें कि पहले से आगे तक जैसा चला आ रहा है वह जस का तस उन सम्प्रदायों की अपनी पद्धति के अनुसार, प्रणाली के अनुसार, रीति के अनुसार आगे आने वाले अनुग्रह मांगने वाले व्यक्तियों में संक्रमित किया जाता है और यह संक्रमण  करना अनुग्रह कहलाता हैl
क्रमशः...
 

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