Friday, May 13, 2016

अनुग्रह - भाग ७


जगतसत्यत्व भ्रान्ति “ नामक एक भ्रान्ति है जिसका अर्थ है ऐसा लगना कि संसार जैसा दिखाई दे रहा है वैसा ही है और यह कि वही सत्य हैl यह एक भ्रान्ति है l इस भ्रान्ति को कौन हमारे ध्यान में लायेगा ? हम मन से, आचरण से कितने भी शुद्ध क्यों न हों, उसके कारण अधिक से अधिक हमारे मन में पाप वासना नहीं आएगी और हम गलत काम नहीं करेंगेl लेकिन हमें जो लग रहा है वह भ्रम, श्रीगुरु ने उस तरफ ध्यान दिलाये बिना हमारी समझ में नहीं आताl यह ‘जगत सत्य है‘  ऐसा लगना हमारे मन का मैल है यह हमारे ध्यान में नहीं आताl अतः श्री गुरु ठीक वही बात हमें बतलाते हैं कि यह संसार जैसा दिखाई देता है वैसा नहीं हैl वह सत्य नहीं हैl वह मायामय या मायिक हैl

तुरंत ही हमारे मन में प्रश्न उठता है कि मायिक किसे कहते हैं? “सदसद्विलक्षण अनिर्वचनीय“ अर्थात मायिकl ये कुछ बड़े-बड़े शब्द हैं इसलिए इनको समझ लेना आवश्यक हैl जो सत् से विलक्षण है और असत् से भी विलक्षण है उसे “सदसद्विलक्षण” कहते हैंl अब देखें कि विलक्षण शब्द का अर्थ है जो लक्षणों के अनुरूप नहीं हैl जो लक्षणों से मिलता जुलता न होl व्यवहार में हम कहते हैं कि कोई व्यक्ति विलक्षण है अर्थात साधारण रूप से व्यक्ति से हमारी जो अपेक्षा रहती है उसके अनुसार उसका बर्ताव नहीं होताl उसी तरह यह जगत सत् से विलक्षण है और असत् से भी विलक्षण हैl इसलिए वह सदसद्विलक्षण हैl इस प्रकार वह अनिर्वचनीय अर्थात मिथ्या हैl

सत् विलक्षण का क्या अर्थ है? सत् अर्थात सत्य l जो त्रिकालाबाधित है उसे सत्य कहते हैंl पहले था, आज है, और आगे भी रहेगा- ऐसा सत्य का लक्षण हैl इस लक्षण के अनुरूप या अनुसार जो होगा उसे ही सत्य कहते हैंl यह जगत या संसार पहले नहीं था, आज दिखाई देता है लेकिन आगे नहीं होगाl इसका अर्थ यह हुआ कि जगत त्रिकालाबाधित नहीं है अर्थात सत् विलक्षण हैl कुछ लोग कहेंगे कि यह विचार क्यों बतलाया जा रहा है? क्यों हम व्यर्थ ही दिमाग को तकलीफ दें? कृपा करके हमें सुख से जीने देंl लेकिन परमार्थ का यह सम्पूर्ण विषय मनुष्य के सुख से जी सकने के लिए ही हैl परमार्थ जीवन आनंदरूप होने के लिए, आनंदमय होने के लिए हैl परमार्थ का यह उद्देश ही जब विचारों में नहीं रहता तभी ऐसे उल्टे-पुल्टे प्रश्न किये जाते हैंl जगत सदसद्विलक्षण है यह बतलाने का क्या उद्देश है? यह जगत जो दिखाई देता है, वह सत्य नहीं है यह यदि हमें समझ में आ जाये, तो फिर उस जगत के लिए हमारी आसक्ति कम होने में मदद मिलती हैl जगत शब्द की व्याप्ति बहुत बड़ी हैl इसलिए हर समय इतने बड़े जगत का विचार करने की आवश्यकता नहीं हैl प्रत्येक व्यक्ति का जगत उसके अपने लिए सीमित होता हैl मेरा संसार या जगत मेरे सगे संबंधी, मेरे घर–संसार, व्यवसाय, मित्र इत्यादि तक ही सीमित हैl इसी जगत में मेरा रहना हैl उस जगत के प्रति मेरी आसक्ति रहती है, ममत्व रहता हैl इस आसक्ति और ममत्व से मुझे मुक्त होना हैl जिस समय मैं इससे मुक्त हो जाऊंगा, उस समय जो व्यथाएं और वेदनाएं उस आसक्ति और ममत्व के कारण मुझे हो रहीं थीं वे निःशेष हो जायेंगीl फिर मैं सुखरूप हो जाऊंगाl मैं आनंदरूप हो जाऊंगाl ऐसी व्यवस्था इस विचार की पृष्ठभूमि में हैl इस तत्वज्ञान का हेतु यदि ध्यान में लिया जाये तो इस तत्वज्ञान की आलोचना करने में हम नहीं पड़ेंगेl उसकी अधिक चीर–फाड़ नहीं करेंगे और श्रद्धा से उसे स्वीकार करेंगे

तत्वज्ञान बतलाने का एक निश्चित उद्देश हैl यह संसार मिथ्या है, अनित्य है यह यदि मुझे ज्ञात होगा तो इस संसार में जो कुछ भी मैं ‘मेरा’ कहता हूँ उसके प्रति मेरी आसक्ति और ममत्व से मैं मुक्त हो जाऊंगा और मेरा आनंद मेरे साथ बना रहेगाl उस आनंद से मैं वंचित नहीं रहूंगा l ऐसी व्यवस्था अध्यात्मशास्त्र ने, परमार्थशास्त्र ने की हुई हैl हम सबको अच्छी तरह मालूम है कि आसक्ति में, ममत्व में बहुत दुःख होता है क्योंकि जिनके बारे में हमारी आसक्ति होती है उनकी हमसे और हमारी उनके प्रति कुछ अपेक्षाएं निर्माण होती हैंl ये अपेक्षाएं जब पूरी नहीं हो पातीं तब हमें दुःख होता हैl यह दुःख न होने पाए ऎसी व्यवस्था परमार्थशास्त्र में हैl इसलिये परमार्थशास्त्र का अध्ययन और अभ्यास करते समय जिस उद्देश के साथ साधना की जा रही है, उसका ध्यान हमेशा रखना चाहियेl अन्यथा वह तत्वज्ञान सिर्फ रटंत-विद्या बनकर रह जाता है, सैद्धांतिक चर्चा का, सैद्धांतिक विचारों के आदान-प्रदान का रूप लेकर रह जाता हैl उसके अलावा उसका कोई अर्थ नहीं रह जाताl यह उदाहरण देखें :-

“हमने गीता का अध्ययन नहीं किया है, समर्थ रामदासजी के ‘दासबोध’ ग्रन्थ को हाथ भी नहीं लगाया  लेकिन आपने दासबोध के दो सौ पारायण किये हैं, गीता आपको कंठस्थ है, उपनिषदों का आपने सांगोपांग अध्ययन किया है, फिर भी आप में और हममें कोई अंतर दिखाई नहीं देताl जैसे हम हैं वैसे ही आप हैं या जैसे आप हैं वैसे ही हम हैंl ऐसे में हमने यह सब अध्ययन न करके क्या खोया है और इतना सब कर आपने क्या हासिल किया है ?“ इस तरह के सवालों का कोई जवाब हमारे पास नहीं होताl

इसका कारण यह है कि जो कुछ हमने पढ़ा है उसका रूपान्तर हम साधना में नहीं कर पातेl हमारी बातों में सिर्फ सिद्धांतों का आग्रह रहता हैl पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष का, खंडन-मंडन का आग्रह और प्रतिपादन रहता हैl केवल बड़े बड़े शब्दों का प्रयोग करने की जिद रहती हैl लेकिन इससे कुछ भी हासिल नहीं होताl ऐसे समय यदि समाज हमसे ऐसे प्रश्न पूछता है तो हमारे पास उसके कोई उत्तर नहीं होतेl केवल उन्हें चुप कराने के लिये हम उत्तर देते हैं कि “हम में आतंरिक बदलाव हुए हैंl उनको आप समझ नहीं सकते या उनको आपके द्वारा समझने की कोई संभावना नहीं हैl” लेकिन आपके हिसाब से यदि आप में बदलाव हुआ है तो वह बाहर भी प्रकट होना चाहिये या नहीं? तत्वज्ञान के अभ्यास से आपके स्वभाव में, आपके आचरण में बदलाव अपेक्षित हैंl गीता में अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रश्न पूछा है :-

“स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव l
स्थितधी: किम प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम ll  भगवद्गीता ( २- ५४ ) 

यहाँ तीन प्रश्न पूछे गए हैंl स्थितप्रज्ञ मनुष्य का वर्तन कैसा होता है? वह कैसे बोलता है? और कैसे चलता है? कुल मिलाकर देखें तो उसका जीवन किस प्रकार का होता है? इसका उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने दिया है कि “वह ऐसा- ऐसा  होता हैl“ इसका अर्थ यह निकलता है कि पहले वह वैसा नहीं था l स्थितप्रज्ञ बनने के बाद उसमें वे परिवर्तन आये और उसके बर्ताव में, उसके स्वभाव में और उसकी  भाषा में, बोली में परिवर्तन हुएl इसका मतितार्थ यही है कि वह अंतर्बाह्य रूप से बदल गयाl साधक में भी ऐसे बदलावों की अपेक्षा हैl जब यह अपेक्षा पूरी नहीं हो पाती तब संसार ऐसे ही प्रश्न पूछता है जिनका जवाब देते नहीं बनताl 

शास्त्र कहते हैं “जगत मिथ्या है“ क्योंकि वह सदसद्विलक्षण हैl वह सत् विलक्षण किस तरह से है यह हमने देखा और अब वह किस तरह  असत् विलक्षण है यह हम देखेंगेl

असत् का क्या अर्थ है? जो मूलतः है ही नहीं उसे असत् कहते हैंl व्यवहार में असत्य का अर्थ “झूठा” ऐसा लिया जाता है लेकिन परमार्थ में उसका अर्थ भिन्न हैl असत् याने जो मूलरूप से है ही नहीं, जो कभी भी किसी को दिखाई नहीं देता, जिसका अस्तित्व नहीं होता उसे असत् कहते हैंl असत् शब्द समझाने के लिए दो तीन उदाहरण हमेशा दिए जाते हैंl ‘ख़पुष्प’ नामक एक उदाहरण हैl ‘ख़पुष्प’ अर्थात आकाश में लगा हुआ फूलl यह फूल या पुष्प आज तक किसी ने भी नहीं देखाl दूसरा उदाहरण ‘शशश्रंग’ अर्थात खरगोश के सींग का दिया जाता हैl खरगोश के सींग आज तक किसी ने नहीं देखे क्योंकि उसका अस्तित्व ही नहीं हैl इसलिए वह असत् है l तीसरा उदाहरण ‘वन्ध्यापुत्र’ का दिया जाता हैl यदि कोई स्त्री वन्ध्या या बाँझ है तो फिर उसका कोई पुत्र कैसे हो सकता है? अतः ‘वन्ध्यापुत्र’ असत् हैl ये तीनों उदाहरण परमार्थ में बार बार दिए जाते हैंl इन उदाहरणों से संसार या जगत किस प्रकार से असत् है यह समझा जा सकता हैl  यदि जगत को असत् कहें तो मुश्किल होती है क्योंकि आँखें उसे प्रत्यक्ष रूप से देखती हैंl इस कारण वह असत् के लक्षणों से मेल नहीं खाताl उसी प्रकार जगत सत् के लक्षणों से भी नहीं मिलताl इस तरह सत् और असत् दोनों के लक्षणों से मेल नहीं खाने वाले जगत को सत् विलक्षण और असत् विलक्षण कहते हैं अर्थात जगत मिथ्या याने अनिर्वचनीय हैl
क्रमशः....

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