Friday, May 13, 2016

अनुग्रह - भाग ८

ऐसे मिथ्या जगत के प्रति मेरे मन में आसक्ति नहीं होना चाहिये और मेरे मन में ममत्व नहीं रहना चाहिये इस उद्देश को लेकर इन विचारों को बतलाया गया हैl अगर ये दो बातें जीवन से हट जाएँ, दूर हो जाएँ तो मनुष्य विरक्त हो जाता हैl

इस बारे में संत ज्ञानेश्वरमहाराज कहते हैं :-

“आणि मी माझे ऐसी आठवण l विसरले जयाचे अंतःकरण l
पार्था तो संन्यासी  l निरंतर ll“ ( ज्ञानेश्वरी ५ - २० )

इस ओवी में ज्ञानेश्वर महाराज ने संन्यास की ही व्याख्या की हैl वे संन्यास दीक्षा लेने के लिए नहीं कह रह रहे हैंl वे कह रहे हैं कि ‘मैं और मेरा’ की याद या स्मृति भी अपने पास मत रखियेl यह स्मृति या याद जिस क्षण चली जायेगी, नष्ट हो जायेगी, दूर हो जायेगी उसी क्षण आप संन्यस्त हो जायेंगे और निरंतर संन्यासी ही रहेंगेl इतना कुछ ज्ञानेश्वर महाराज के कहने के बाद और क्या कहने को बाकी रहा? 
‘मैं और मेरा’ इन दोनों में जो आसक्ति है, ममत्व है, उससे छुटकारा कब होगा? जब भ्रांति से छुटकारा होगा, जब गुरुवाक्य से मन प्रक्षालित होगा, निर्मल होगा तभी ममत्व और आसक्ति से छुटकारा होगाl श्री गुरु कहते हैं ‘तुम कौन हो’?  तो  तुम ब्रह्म हो - तत् त्वं असि – तत्वमसि, यह महावाक्य हैl इस महावाक्य को हम  विस्तार से समझ रहे हैंl भ्रम की निवृत्ति के कारण महावाक्य के अभ्यास की पूर्व तैयारी हो जाती हैl इस महावाक्य में तत्, त्वं और असि इस तरह तीन पद हैंl अतः ‘तत्वमसि’ महावाक्य का अर्थ है ‘वह तुम हो’l इस महावाक्य में ‘वह’ कौन है? जो भी वह है उसे ब्रह्म कहते हैंl वह ब्रह्म कैसा है? वह व्यापक है, अनादि है, अनंत है, निर्गुण है, निराकार हैl लेकिन ब्रह्म यदि निराकार है और सारा जगत यदि ब्रह्मरूप है तो जगत को आकार किस प्रकार मिला? ऐसा प्रश्न तुरंत ही  निर्माण होता हैl एक ओर आप कहते हैं कि सारा जगत ब्रह्मरूप है और ब्रह्म निराकार हैl दूसरी ओर हमारे सामने नाम-रूप से भरा हुआ सारा जगत दिखाई दे रहा है जो विविध आकारों से भरा हुआ हैl ऐसी स्थिति में आपका जगत सम्बन्धी कथन और प्रत्यक्ष हमारी आँखों से जो दिखाई दे रहा है इन दोनों में इतनी विसंगति होने पर आपका कथन कैसे माना जा सकता है? इस बारे में जो भी विचार है वह ‘तत्’ पद के अंतर्गत किया जाता हैl इसलिए हम परमार्थ को फास्ट फ़ूड की तरह आसान नहीं सोच सकते कि बाजार गए और पावभाजी या बर्गर खाकर लौट आयेl ऐसा होने की यत्किंचित भी संभावना नहीं हो सकतीl “फ़ास्ट परमार्थ” आज तक किसी के बूते की बात नहीं हुई और न आगे होने की कोई संभावना हैl

परमार्थ में बहुत बड़े बदलाव से गुजरना पड़ता है और यही इसका कारण हैl इस बदलाव का विचार करते समय संत तुकाराम महाराज कहते हैं –
चणे खावे लोखंडा चे l तेव्हां ब्रह्मपदी नाचे ll
अर्थात लोहे के चने चबाने में जब आप सक्षम होंगे उसी समय आप ब्रह्मपद पर पहुँच सकेंगे अर्थात ब्रह्मानुभव ले पायेंगेl

यहाँ ‘लोहे के चने चबाना’ मुहावरे का अर्थ है अनेक प्रक्रियाओं से गुजरनाl परमार्थ साधना में हमें हमारे अपने मन के विरुद्ध होने वाली बहुत सी बातों से गुजरना पड़ता हैl साधना का प्रारंभ होने के पहले हमारा जिंदगी जीने का अंदाज कुछ अलग होता हैl उसके एकदम विपरीत तरीके से या पद्धति से जीने का प्रसंग साधना शुरू होने पर आता हैl ऐसे समय हमारा अपने आप से ही झगड़ा होता है l हमारा मन हमें हमारी पहले से चली आ रही हमारी आदतें छोड़ने नहीं देताl साधना काल में एक नया मन तैयार होता रहता हैl इस अभ्यास करने वाले नए मन का, नए संस्कार लेकर आने वाले मन का साधना के पहले वाले मन से झगड़ा होता हैl इस सन्दर्भ में संत तुकाराम महाराज कहते हैं –

                        “ रात्रंदिवस आम्हां युद्धा चा प्रसंग l
                          अंतर्बाह्य जग आणि मन ll  ( तुकाराम गाथा ३१५१ )

अर्थात  हमारा भीतरी और बाह्य जगत और मन का झगड़ा या युद्ध दिनरात ही चलता रहता हैl  

इस दो मनों के युद्ध को यदि जीतना हो तो लोहे के चने चबाने की तैयारी रहना चाहियेl जिसकी लोहे के चने चबाने की तैयारी रहेगी उसे ब्रह्मपद पर पहुँचने में समय नहीं लगेगाl वैसे यह बात उतनी मुश्किल भी नहीं हैl वरना ऐसा लगने लगेगा कि  यह कुछ अलग ही मामला हैl यह हमारे बूते की बात नहीं लगतीl लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हैl यह एकदम छोटा-सा काम है ऐसा भी तुकाराम महाराज बतलाते हैं ;-
थोड़े आहे  थोड़े आहे  l  चित्त साह्य झालिया ll   ( तुकाराम गाथा ८५ )
अर्थात चित्त या मन अगर सहायता करने को राजी हो, सहमत हो तो ये बहुत छोटा-सा और थोड़ा सा काम हैl अतः उससे घबराने की कोई बात नहीं हैl यह कोई भयंकर बात है ऐसा मत सोचोl एकदम थोडा -सा काम है  मगर शर्त यही है कि आपका मन आपकी मदद के लिए तैयार होना चाहियेl यहीं सब गड़बड़ हो जाती हैl अडचन यही है  कि हमारा मन हमारी मदद ही नहीं करताl यदि हम लगातार उसको सहायता करने के लिए मनाते रहें तो साधना आसान हो जाएगीl इस तरह बुद्धि पर विद्यमान अविद्या और अज्ञान के पुराने संस्कार मिटाकर ‘तत्वमसि’ का सो S हम में किये गए रूपांतरण से नए संस्कार करते रहने को ही साधना कहते हैंl साधना  दिनभर में घडी, दो घडी की जाने वाली बात नहीं हैl सुबह आधा घंटा, शाम को आधा घंटा, दोपहर में नामस्मरण के दस मिनिट और ध्यान में पांच मिनिट बिताना और गाँव या शहर में कहीं भजन, प्रवचन, कीर्तन आदि हो रहा हो तो वहां जाना - केवल ऐसा करना साधना नहीं हैl साधना इस पद्धति से नहीं हो सकतीl लेकिन साथ ही श्रवण के बिना साधना का अर्थ समझना भी संभव नहीं हैl श्रवण का बहुत अधिक उपयोग हैl श्रवण साधना की नींव हैl लेकिन यदि श्रवण हुआ तो सब कुछ  हो गया ऐसा सोचना भी गलत होगा बल्कि दोनों का संतुलन ठीक से सम्हालना चाहिएl हम विचार कर रहे थे संत ज्ञानेश्वरजी की ओवी  जेणें भ्रान्ति पासूनि हिरतले l  गुरुवाक्यें मन धुतलेकाl  जगत के सत्य होने का जो भ्रम है उसे गुरुवाक्य की सहायता से दूर करना है, हटा देना है, धो डालना है और जगत मिथ्या है ऐसा निश्चय करना हैl यह निश्चय दृढ़ होने तक अभ्यास रत रहना हैl यह बहुत महत्वपूर्ण बात हैl जितने प्रकार से जगत का मिथ्या होना समझ में आ सकेगा उतना ही अधिक अच्छा रहेगाl जगत का मिथ्यत्व समझने के अनेक तरीके हैंl माया का वर्णन प्रतीतिमात्र, सत्तावान, ज्ञान विवर्त्य आदि पांच छः प्रकार  से किया जाता हैl माया का विचार हमारे वेदान्तशास्त्र में जितना किया गया है उतना संसार के किसी अन्य तत्वज्ञान ने नहीं किया हैl यह जगत या संसार जैसा दृष्टिगत होता है वैसा ही है ऐसा लगना एक भ्रम है क्योकि इस संसार की उत्पत्ति होती है, स्थिति है और नाश भी हैl जो भी परिवर्तनशील है वह मिथ्या होता हैl ऊर्जा (Energy) का पदार्थ ( Matter ) में रूपान्तर होता है और पदार्थ का ऊर्जा में रूपान्तर होता हैl इसलिए वहां मिथ्यात्व हैl क्या मनुष्य भी परिवर्तनशील नहीं है? कल कुछ वचन दे देता है और आज उससे मुकर जाता हैl अर्थात आज एक जिम्मेदारी लेकर दूसरे दिन उसे छोड़ देता हैl इसका अर्थ यही हुआ कि  हम भीतर से परिवर्तनशील हैं और वैसे ही बाहर से भी परिवर्तनशील हैंl जिसके लिए हमें ममत्व लगता है वह भी परिवर्तनशील है और जो परिवर्तनशील है उसके लिए ममत्व रखने में, आसक्ति रखने में कोई अर्थ नहीं हैl यह यदि ध्यान में आ जाये तो यह सारा तत्वज्ञान उपयोगी सिद्ध होगाl अतः ध्यान रखें कि भ्रांतियों को मन से गुरुवाक्य के द्वारा मिटा देना हैl
क्रमशः....

No comments:

Post a Comment