“दत्त भार्गव संवाद“ नाम का एक ग्रन्थ हैl उसमें पत्नी गुरु और पति शिष्य हैl गुरु
शिष्य की जोड़ी का शिष्य पति ऊँची मीनार पर जा बैठता हैl उसके
लिये रस्सी और डोली के द्वारा भोजन आदि सामान ऊपर पहुंचाया जाता थाl वह बाहर बिलकुल देखता नहीं थाl उसने अपने आप
को छः महीने तक मीनार में बंद कर रखा थाl वह आँखें बंद करके बैठता था ताकि उसे जगत किसी भी परिस्थिति
में दिखाई न देl उसका विचार था कि मिथ्या जगत उसे दिखाई न दे
इसके लिये उसके पास एक ही उपाय है कि उस मिथ्या जगत को वह न देखेl पत्नी ने छः महीनों तक उसके यह सब रंग –ढंग चलने दियेl छः महीने बाद उस गुरु रूप पत्नी ने उसे नीचे बुला लिया और उससे एक सुन्दर
प्रश्न पूछा कि “आप यह बतायें कि ऐसा क्या है जो आँखें बंद करने पर आता है और
आँखें खोलने पर जाता है? क्या आँखें बंद करने पर आपकी आत्मा आती है और खोलने पर
चली जाती है? जगत दृष्टिगत न हो इसलिये आपने अपने आप को मीनार में कैद कर लिया
लेकिन मीनार के पत्थर तो नजर आये ही ना? ये जो मीनार के पत्थर हैं, वे क्या जगत से अलग हैं? मीनार के पत्थर जगत से ही लाये गए हैंl पत्थर यदि दिखाई देते हैं तो पत्थर के रूप
में जगत ही दिखाई देता है इसलिए आँखें बंद करने से काम नहीं चलेगाl” जो भी दिखाई दे रहा है उसे विषय सर्प ने पकड़ रखा है, केवल उसके सत्यत्व
का विष हटा देने के बाद जो भी जगत दिखाई दे, उसे वैसा दिखने दोl क्योंकि जगत तो दिखाई देगा ही, उसे दूर नहीं हटा सकतेl जगत को दूर हटाना परमार्थ का उद्देश भी नहीं हैl
संसार से भाग जाना भी परमार्थ का उद्देश नहीं हैl बल्कि जगत
की तरफ देखने का दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता हैl यह
दृष्टिकोण बदलने की बात जब तक हमें नहीं समझती, तब तक परमार्थ जटिल और गूढ़ बना
रहता हैl हम ठान लेते हैं कि परमार्थ हमारे सामर्थ्य के बाहर
की बात हैl ऐसी गलतफहमी हमारे मन में हमेशा के लिए हो जाती
है l इस पर एक ही उपाय हैl अनवरत
श्रवण, यथाशास्त्र श्रवण, यथार्थ श्रवणl ऐसा अगर हो पाया तो
हमारी सारी गलतफहमियाँ समाप्त हो जायेंगीl उसके बाद ही हम
ज्ञानेश्वर महाराज की इस ओवी का रहस्य समझ पायेंगेl एक दूसरा
विषय ‘शब्द’ हैl कानों से शब्द सुनाई देते ही रहेंगेl सुनना कानों का धर्म हैl परन्तु वह सुना हुआ शब्द
सत्य लगना ही उसका विष हैl शब्द मिथ्या हैं ऐसा यदि हम समझ
पायें तो उस शब्द का विष हट जाता हैl उसके बाद निंदा या
स्तुति दोनों ही संतों की दृष्टि में एक से होते हैl निंदा
हो या स्तुति हो, दोनों ही शब्द कानों द्वारा सुने जायेंगेl
कान सुनने का काम करेंगे ही क्योंकि शब्द कानों का विषय हैl
अतः इन शब्दों के विषयसर्प की पकड़ टाली नहीं जा सकती l
परन्तु चूँकि शब्द मिथ्या हैं यह मुझे ज्ञात है अतः शब्दों का अर्थ मिथ्या हो जाता
हैl शब्दों का अर्थ मिथ्या होने पर उसकी अनुकूल या प्रतिकूल
प्रतिक्रया नहीं होतीl अनुकूल या प्रतिकूल विचार नहीं होने
के कारण हमारा संतोष, शान्ति, सुख, तृप्ति इनमें से किसी में भी कोई बाधा, अड़चन या
कमी नहीं आतीl
शब्दों के सन्दर्भ में अब एक आखरी विचार आपको बतलाता हूँl हमारे संपर्क में आनेवाले लोग हमसे कुछ
बातें कहते रहते हैंl आम तौर पर जो कुछ कहा गया इसका विचार
कहने वाले करते ही हैं ऐसा नहीं हैl वे अपने तरीके से बातें
करते है और निकल जाते हैl एक उदाहरण के द्वारा यह बात तुरंत
समझ में आयेगीl एक शांत सरोवर हैl उस
सरोवर में कोई तरंगें नहीं उठ रही हैंl वह अत्यंत शांत हैl एक चंचल बालक आता है और एक पत्थर उठाकर सरोवर में फेंक देता हैl पत्थर फेंक कर वह कहीं चला जाता हैl शरारत करना
बालक का धर्म हैl एक शरारत करके वह दूसरी शरारत करने कहीं
चला गयाl अपने पीछे वह क्या कर गया इसकी उसे कोई खबर नहीं
होतीl कुछ उसी तरह की हमारी स्थिति होती हैl कोई आकर हमारे कानों के द्वारा शब्दों को
डालकर चला जाता हैl पत्थर गिरने के बाद सरोवर की सतह पर
तरंगों के उद्वेलन दिखाई देते हैं, कुछ हलचल दिखाई देती हैl
पत्थर सरोवर के तल में पहुँचने पर हलचल धीरे धीरे शांत हो जाती हैl ठीक वैसी ही हमारे मन की अवस्था भी होती हैl लेकिन
सरोवर और हम में एक अंतर हैl एकबार पत्थर तल में पहुँचने के
बाद सरोवर उसे फिर से ऊपर नहीं उठाताl परन्तु हमारी और आपकी
बात वैसी नहीं हैl किसी का कहा हुआ शब्द जिसके कारण हमारे मन
के सरोवर में खलबली मची थी, उसे हम बार बार याद करते रहते हैंl अर्थात वह शब्द रूपी पत्थर हम अपने आप पर बार बार डालते रहते हैं और फिर
से अशांत होते रहते हैंl पत्थर डालने वाला व्यक्ति अपने
स्वभाव धर्म के अनुरूप पत्थर डालकर चला गया हैl उसे उसकी सुध
भी नहीं हैl लेकिन हम उस फेंके हुए शब्द रूपी पत्थर को बार
बार याद कर ऊपर उठाकर अपने ऊपर डाल रहे हैं और अपनेआप को
अशांत कर ले रहे हैंl
इस तरह के विचित्र करतब हम करते रहते हैंl हाँ, ये पत्थर दो
प्रकार के होते हैंl एक वे जिनकी चाहत रहती है और दूसरे वे
जो अनचाहे हैंl पत्थर फेंककर डाल देने पर जो घटित होता है
ठीक वैसा ही पत्थर जितना बड़ा लड्डू डाल देने पर भी होता हैl
लड्डू का उदाहरण देने का एक कारण हैl ये मान लें कि पत्थर
हमारे प्रतिकूल है जब कि लड्डू हमारे लिये अनुकूल हैl लेकिन
अनुकूल होते हुए भी लड्डू डाल देने पर मन में खलबली मचती ही हैl यदि हमें अशांति नहीं चाहिये तो जिस तरह निंदा
के शब्द सुनने के बाद हमारे मन में कोई हलचल नहीं होना चाहिये उसी तरह स्तुति
के शब्द सुनने पर भी उन्हें बार बार याद कर मन में कोई हलचल नहीं होना चाहियेl तत्वतः लड्डू और पत्थर इन दोनों का अर्थात
स्तुति और निंदा के शब्दों का मूल्य यहाँ एक सा हैl ऐसा ही
कुछ ज्ञानेश्वर महाराज इस ओवी में कहते हैं :-
सुखीं संतोषा न यावें l दुःखीं विषादा न भजावें l
आणि लाभालाभ न धरावें l मना माजीं ll ( ज्ञानेश्वरी
२ – २२६ )
अर्थात सुख मिलने पर आनंद से झूमना नहीं चाहिये और न दुःख
मिलने पर विषाद से खिन्न होना चाहियेl लाभ या हानि और उसी तरह अनुकूल
और प्रतिकूल भावना मन में सम्हाल कर नहीं रखना चाहिएl
लड्डू हो या पत्थर दोनों का काम हमारे अंतःकरण में विकलता
उत्पन्न करना हैl
अतः चाहे पत्थर हो या लड्डू, किसी भी कारण से अपने अंतःकरण की स्वस्थता, शांतता, तरंग रहित
अवस्था बिगड़ना या खराब होना ही दुःख हैl यही दुःख की सही व्याख्या हैl मूलतः
अत्यंत शांत, स्थिर और तृप्त अंतःकरण में जिस क्षण सुख या दुःख की तरंग
उठती है, उसी क्षण वह दुखी होता हैl सुख या दुःख की तरंग उठना ही दुःख हैl
हमें सुख की तरंगों की अभिलाषा रहती है और दुःख अनचाहा लगता हैl वेदान्तशास्त्र की दृष्टि में दुःख की उठी हुई तरंगें हों या सुख की उठी
हुई तरंगें, दोनों ही दुःख रूप हैंl अतः उन्हें मन की तलहटी
में स्थिर होने देंl बार बार ऊपर उठाकर मन में क्षुब्धता न
लायेंl इतना संयम यदि हम रख पायें तो विषयों को निर्विषता के
साथ अनुभव कर पायेंगे l ऐसी गुरुकृपादृष्टि हमें अनुग्रह से
प्राप्त होती हैl सद्गुरु की कृपा से हमें संसार की ओर देखने
की अलिप्त दृष्टि (साक्षी भाव) प्राप्त होती हैl यही
गुरुकृपादृष्टि हैl इस साक्षीभाव की अलिप्त दृष्टि अर्जित
करना और अपने पास बनाये रखना ही अनुग्रह का उद्देश हैl
कुल मिलाकर अनुग्रह का ऐसा स्वरुप हैl अनुग्रह में महावाक्य का
समावेश होता है, ध्यान का समावेश होता है, ध्यान के द्वारा उस तत्व के अनुभव की
व्यवस्था होती है, उसके लिए सहायक नामसाधना या नामचिन्तन की व्यवस्था होती है और
इन सबके लिये आवश्यक तत्वज्ञान का आधार रहता हैl गुरुकृपा
में यह सब कुछ हैl यही सब कुछ यदि अनुग्रह में समाविष्ट
रहेगा और यथार्थ पद्धति से दिया जायेगा साथ ही उसी पद्धति से उसे ग्रहण किया
जायेगा, स्वीकार किया जायेगा, तो जो अवस्था तुकाराम महाराज की है
वही अवस्था हमें प्राप्त होगी जिसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है :-
आनंदा चे डोही आनंद तरंग l आनंद चि अंग आनंदा चे ll ( तुकाराम गाथा )
अर्थात मैं आनंद का
सरोवर हूँ जिसमें आनंद की तरंगें उठती हैंl मैं आनंद हूँ और मेरा शरीर भी आनंद हैl केवल आनंद ही आनंद है l
|| हरि ॐ ||
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