अनुग्रह का दूसरा स्तर इसके पहले ही बताया गया हैl कोई व्यक्ति बारह वर्षों तक अच्छी तरह से साधना करता हैl
वह साधन चतुष्टय संपन्न भी हैl अत्यंत सदाचारी है, अपनी
पद्धति से उसने नाम साधना भी की हुई है और अपनी समझदारी से कुछ ध्यान साधना की है, कुछ
तत्वचिंतन भी किया हैl
यह सब होते हुए भी उसकी साधना में एक ऐसा स्थान आता है कि संतोष नामक वस्तु फिर भी
उससे दूर ही रहती हैl यह एक उंचा स्तर है जहाँ अनुग्रह दिया
जाता है और दूसरा निचला स्तर वह है जिसका
वर्णन हम पहले ही देख चुके हैंl उस स्तर पर भी अनुग्रह दिया
जाता हैl दोनों ही अनुग्रह देनेवाले की दृष्टि में समान हैंl लेकिन लेनेवाले की दृष्टि से बहुत बड़ा अंतर हैl
अनुग्रह के सन्दर्भ में यह पहलू तत्वज्ञान का हैl
अनुग्रह के सन्दर्भ में दूसरा पहलू नामसाधना का हैl जिनका नाम हम ले रहे हैं उन रामजी का
स्वरुप समझ पाने के लिए तत्वज्ञान की अत्यंत आवश्यकता हैl उन
राम से मेरा क्या सम्बन्ध है, उनका और मेरा क्या नाता या रिश्ता है यह समझने के
लिए तत्वज्ञान की आवश्यकता होती हैl वह तत्वज्ञान यदि एक बार भीतर
पैठ पा ले, मजबूती से जड़ें जमा ले, तो उसके बाद राम का नाम लेने में और तत्वज्ञान न
समझते हुए राम का नाम लेने में जमीन-आसमान का अंतर होता हैl इसके बारे में एक दृष्टांत देखते हैं :-
मेरी बैठने के लिए एक अच्छी कुर्सी हैl मैं अस्पताल में उस कुर्सी पर बैठता हूँl बहुत ही अच्छी कुर्सी है – रिवाल्विंग है, फोम वाली नर्म सीट हैl एकबार मैं अस्पताल में उसी कुर्सी पर बैठा हुआ थाl
मेरे सामने एक चार वर्ष का बालक अपनी माता के साथ बैठा हुआ थाl किसी कार्यवश मैं उस कुर्सी से उठकर वार्ड में मरीज देखने चला गयाl लौटकर आने पर मैंने देखा की बालक मेरी कुर्सी पर बैठा हुआ है, उसने गले
में मेरा स्टेथस्कोप डालकर कानों में अटका लिया हैl उसने
अपनी माँ को पास में बुला लिया था और उसकी छाती, पीठ, माथे पर सभी जगह आला लगाकर
उसकी गंभीरता से जांच कर रहा थाl जैसा मैं कर रहा था ठीक वैसा
ही वह बालक भी कर रहा थाl अब दोनों के जांच करने में कितना
अंतर है? कुर्सी वही है, स्टेथस्कोप वही है, छाती, पीठ आदि पर आला लगाकर देखना भी
वैसा ही हैl लेकिन उसमें भीतरी तौर पर कुछ भी
नहीं है l पूरा कोरापन हैl
स्टेथस्कोप क्या होता है यह उसे नहीं मालूम, उसमें कैसी आवाज आती है यह भी नहीं
मालूम , बीमारी का आकलन और निदान भी नहीं हो पायेगा और मरीज ठीक होने की भी कोई संभावना
नहीं हैl बाहरी तौर पर सब कुछ एक
जैसा हैl छोटा बालक होने के कारण उसके कौतुक की प्रशंसा
होगी इसमें कोई शंका नहीं हैl सब कुछ वैसा
होते हुए भी उसके भीतर वह ज्ञान नहीं हैl अतः इन कार्य-कलापों का कोई उपयोग नहीं हैl परमार्थ में हम यदि इसी तरह उपरी तौर पर कुछ
कृति करते हों तो वह भी कुछ कौतुक का विषय
हो सकती हैl लेकिन चार वर्ष के बालक का कौतुक ठीक है क्योंकि वह
उपरी तौर पर किया हुआ अनुकरण है जो सबको मालूम हैl वहां
ज्ञान की अपेक्षा भी नहीं हैl लेकिन बड़ों के लिए ऐसा नहीं चल
सकताl इसलिए परमार्थ मार्ग पर हम जो कृति करते हैं उसे
विचारों का, तत्वज्ञान का आधार होने की आवश्यकता हैl यह आधार
अनिवार्य हैl उससे कोई छुटकारा नहीं हो सकताl भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि जो मुझे शरण आते हैं उन्हें मैं
बुद्धियोग देता हूँ और बुद्धियोग देने के बाद वे मुझ तक पहुंचते हैंl
तेषां सतत युक्तानां भजतां
प्रीतिपूर्वकं l
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ll (
भ,गीता १०-१० )
इसका अर्थ यह हुआ कि यदि हम ईश्वर की भक्ति, शास्त्रों के अनुसार या शास्त्र
विहित पद्धति से, निष्ठा के साथ और प्रेमभाव से, करते रहें तो उसके परिणाम
स्वरुप हमें बुद्धियोग मिलने की व्यवस्था हो जाती हैl भगवान् बुद्धियोग देते हैं याने कोई जादू
नहीं करतेl एक बात ध्यान में रखनी होगी कि अनुग्रह में कोई
जादूगरी नहीं हैl इसके विपरीत जब तक उसमें जादू है, कुछ विशेष
बात है कुछ अलग है ऐसा लगता रहता है, तब तक उस अनुग्रह का जैसा पृष्ठ-पोषण करना
चाहिये वैसा हम नहीं करेंगेl जादू के कारण ही हम आगे बढ़ जायेंगे ऐसा लगना स्वाभाविक होगाl श्रीगुरु ने जो क्षणिक अनुभव दिया है, उस अनुभव
का सामर्थ्य ही मुझे आगे ले जाएगाl आगे प्रगति करने के लिए मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है – ऐसी
भावना होने की संभावना रहती हैl ऐसा न होने पाये इसके लिये
अनुग्रह के संबंध में जो भी विपरीत कल्पनाएँ हैं उन सब को दूर करने की, हटा देने
की आवश्यकता हैl
अनुग्रह के तीन भाग हमारे सामने हैं :-
१.
क्षणिक ही सही लेकिन प्रत्यक्ष अनुभव देना
२.
नाम साधना के लिये कोई एक नाम देना
३.
नाम के पीछे जो तत्वज्ञान है उसे बतलाना
नाम साधना बतलाना, तत्वज्ञान बतलाना और किसी
प्रक्रिया द्वारा ध्यान कैसे किया जाय बतलाना – ये तीनों बातें एक दूसरे के लिये
पूरक हैंl ध्यान के लिए तत्वज्ञान अत्यंत पूरक हैl तत्वज्ञान के बिना ध्यान कैसे करें, ध्यान में
कौन सी प्रक्रिया अपनाएं यह समझ में नहीं आयेगाl श्री गुरु सारी प्रक्रिया बतला भी
दें, फिर भी तत्वज्ञान के बिना उस प्रक्रिया का पूरा अंदाज, पूरा
विस्तार, पूरी कल्पना हमें नहीं हो पायेगीl ध्यान की एक प्रक्रिया होती है और उस
प्रक्रिया से गुजर कर ध्यान तक हमारा हलके से, आहिस्ता से पहुँचना अत्यंत
महत्वपूर्ण होता हैl ऐसा कैसे हो सकता है कि आसन लगाकर बैठ
गये विशिष्ट तरीके से हाथ रख लिए और हो गया ध्यान शुरूl यह
तनिक भी संभव नहीं हैl जिस तरह प्यार
के बारे में होता है ठीक वैसा ही यहाँ भी हैl ऐसा कभी होगा क्या कि कोई कहे, ‘आज से
तेरा मेरा प्यार शुरू“ और प्यार हो जाएl ऐसा होने की कभी भी संभावना नहीं होतीl प्यार की भावना तक कोई व्यक्ति बड़ी ही नजाकत से, धीरे से, हलके से
पहुंचता है l संग –साथ
रहने से, एकदूसरे के स्वभाव मेल खाने के कारण उस हलके से पहुँचने में भी एक अलग
जादू होता हैl संत तुकाराम ने निरपेक्ष, निर्विषय और विशुद्ध
प्रेम का सुन्दर वर्णन किया है l वे कहते हैं ;-
प्रेम न
ये सांगतां बोलतां दावितां l अनुभव चित्तां चित्त जाणे ll
(तुकारामगाथा २७१४)
अर्थात प्रेम के बारे में कुछ बोलने की, बतलाने की
या दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं होती l वह अनुभव होते ही ह्रदय या चित्त जान जाता हैl
ध्यान के बारे में बिलकुल यही बात होती हैl धारणा जानकर, बूझकर करनी पड़ती हैl वह निश्चय करके करना पड़ती हैl धारणा परिपक्व होते
ही सहजता से होने पर उसे ध्यान का स्वरुप प्राप्त होता हैl
ध्यान में परिपक्वता और सहजता आ जाने पर ही समाधि सिद्ध होती हैl
समाधि में तत्व का अनुसंधान साध्य किया जाता हैl उसके लिये
उस तत्व से एकरूपता होनी चाहियेl एकरूप होते समय हडबडाहट का
कोई काम नहीं हैl ध्यान की अवस्था में अत्यंत धीमी गति से, हलके से,
धीरे-धीरे पैठ ज़माना पड़ती हैl वैसी पैठ पाने के लिए भी पुनः
तत्वज्ञान की आवश्यकता होती हैl नाम साधना में
जब हम दिनभर नाम का उच्चारण करते हैं तो जो बात हो पाती है वह यही कि हमारे चित्त
की चंचलता कम हो जाती हैl
दिनभर के तेईस घंटे यदि हमारा जीवन जैसे चलता आ रहा है वैसा ही अभी भी चलता रहेगा
तो ध्यान का बचा हुआ चौबीसवां घंटा कुछ अलग तरीके से अचानक बिताना कदापि संभव नहीं
हो पायेगाl सारे व्यवहार वैसे ही चलते रहें और ध्यान के लिए
बैठने का समय कुछ अलग पद्धति से,अलग प्रकार से बीते, मन की एकदम अलग अवस्था हो
जाये मानों जादू हो गया हो, संभव नहीं हैl संपूर्ण दिन की
हमारे मन की जो स्थितियां हैं वे हमेशा समाहित होना चाहिये न कि बिखरी हुईl वे न बिखरें, इसके लिये नामसाधना उपयोगी सिद्ध होती हैl जब भी खाली समय मिलता हो तब यदि मन को नामसाधना की आदत हो तो
मनोवृत्तियाँ समाहित रहती हैंl ध्यान के समय अंतःकरण वृत्ति
या कहें कि मन को अन्दर की ओर मोड़ लेना या खींच लेना पड़ता हैl समाहित मनोवृत्ति हो तो उसे भीतर खींच लेने में अधिक प्रयास या श्रम नहीं
करना पड़ताl इस दृष्टि से नाम साधना का उपयोग होता हैl अतः इन तीनों स्तरों की साधना का अनुग्रह में समावेश हैl
अनुग्रह में ध्यान की प्रक्रिया का समावेश है, नाम का समावेश है और तत्वज्ञान
का समावेश है l इसतरह ये
तीनों मिलकर अनुग्रह होता है l इन तीनों को मिलाकर जिसकी अपेक्षा की जाती है
उसे ‘आत्मज्ञान’ कहते हैंl
क्रमशः...
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