Friday, May 13, 2016

अनुग्रह - भाग ४


अब यह देखें कि शक्ति संक्रमण करने का जो समय होता है आधा या एक मिनिट या जो भी वो होता हो, उसका क्या लाभ है? उससे वास्तव में क्या होता है?

          एक बात जो होती है  वह यह कि शास्त्रों में जो एक असम्भावना नामक दोष बतलाया गया है, वह दूर हो जाता हैl तब प्रश्न उठता है कि असम्भावना का क्या अर्थ है? आत्मा नामक एक वस्तु है ऐसा हम श्रद्धा से मानते हैंl लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि आत्मा नाम की कोई चीज है ही नहीं और यदि है भी तो ‘मैं’ आत्मा होना संभव नहींl इसे असम्भावना कहते हैl यह शब्द हमें थोड़ा अलग सा लगेगाl जो सम्भव नहीं उसे रोजमर्रा  की भाषा में असंभव कहते हैंl उसी से यह असम्भावना शब्द बना हैl असम्भावना दोष का अर्थ है ऐसा लगना कि, ‘आत्मा नामक तत्व होना संभव नहीं है और यदि हो भी तो वह ‘मैं’ होना संभव नहीं है‘ यदि अनुग्रह लेते समय शिष्य की अच्छी तैयारी हो और श्री गुरु भी वास्तव में अनुग्रह देने की योग्यता रखते हों (ये दोनों बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं), तो उस अनुग्रह लेनेवाले शिष्य को उस आधा या एक मिनिट तक कुछ एक विलक्षण आनंद मिलता है, विलक्षण अनुभव होता हैl उस विलक्षण अनुभव और उस आनंद के कारण उसका ऐसा विश्वास हो जाता है कि उसकी यह सोच कि आत्मा नामक तत्व है ही नहीं, गलतहैl बल्कि आत्मा नामक तत्व है जो उसकी अपनी समझ से परे कुछ हैl आत्मा हम जो समझ सकते हैं, जान सकते हैं, उस सोच से परे,  उस जानकारी से भी परे कुछ हैl जो मुझे समझ में नहीं आता ऐसा भी कुछ हो सकता हैl जो ज्ञान अब तक उसने प्राप्त किया उस ज्ञान के पार कुछ निश्चित रूप से है इतना उसके ध्यान में ला देने का काम इस अनुग्रह के अनुभव से हो जाता है l एक बार जब उसके ध्यान में यह बात आ जाती है कि ऐसी स्थिति हो सकती है, ऐसी अवस्था हो सकती है, ऐसा आनंद हो सकता है तो उसके बाद उसके अंतःकरण में बहुत बड़ी श्रद्धा निर्माण होती हैl इस प्रक्रिया में श्रद्धा के दो स्थान हैl

१.     जिसने अनुग्रह दिया उस पर श्रद्धा
२.     जिस तत्व के लिए अनुग्रह दिया गया उस तत्व पर श्रद्धा
  
          जो श्रद्धा विशेष महत्त्व की कही जायेगी वह उस तत्व पर होने वाली श्रद्धा हl उस तत्व का क्षणिक अनुभव देनेवाले से अधिक उस तत्व पर होने वाली श्रद्धा अत्यंत मूल्यवान है क्योंकि वह जीवनभर साथ देनेवाली हैl सच्चिदानंद आत्मा एक तत्व हैl वह हमारे सामर्थ्य से परे की, बाहर की, हमारी समझ के परे की वस्तु हैl  हम जिसकी कल्पना भी नहीं कर पाये या कर नहीं पायेंगे – ऐसा लगा था, वैसा कुछ एक तत्व निश्चित रूप से हैl इस तरह पहली श्रद्धा तैयार होती है, और जिसने इस तत्व का अनुभव दिया उसके प्रति सहज रूप से श्रद्धा होती है वह दूसरी श्रद्धा हैl इन दोनों श्रद्धाओं में उस तत्व के प्रति होनेवाली श्रद्धा, जिसने उस तत्व का अनुभव दिया उसके प्रति जो श्रद्धा है उससे अधिक महत्वपूर्ण हैl क्योंकि अनुभव देनेवाला कल रहे या ना रहे, वह देह रूप में हो या न हो, लेकिन आत्मा सर्वदा अनवरत रूप से सत रूप हैl वह नहीं है ऐसा हो ही नहीं सकताl फिर इन दोनों में से कौन सी श्रद्धा हमारे काम आएगी? वास्तव में वह अनुभव जो हमें  दिया गया था वही  हमें आखिर तक साथ देनेवाला हैl उस अनुभव के सहारे, उस अनुभव की कैसे वृद्धि होगी, उस अनुभव को कैसे परिपक्वता मिलेगी, उस अनुभव की कैसे निरंतरता होगी -इसके लिए जो प्रयत्न है, जो अभ्यास है उसे ही सच्चे अर्थों में साधना कहते हैं l इसलिये अनुग्रह लेने पर हममें अपनी जिम्मेदारी की भावना जागृत होना चाहियेl क्षणिक ही क्यों न हो, जिस अवस्था का अनुभव मिला है, उसकी अवधि बढ़ाना संभव हो, उसका स्तर उंचा उठाना संभव हो ऐसी साधना निरंतर करते रहना अनुग्रह लेनेवाले की जिम्मेदारी होती हैl हम समझते हैं कि अनुग्रह के द्वारा शक्ति संक्रमण या संचार करना और उस संक्रमण या संचार से जिस वस्तु की हम कल्पना भी नहीं कर सकते उसका क्षणिक ही क्यों न हो अनुभव करवा देना, इतना ही अनुग्रह का सबसे महत्वपूर्ण भाग हैl एक तरह से उसमें सच्चाई भी हैl सच्चाई इसलिए कि उस अनुभव के बाद हम उसका आकर्षण, खिंचाव, उसकी लगन छोड़ नहीं पातेl लेकिन जैसा पहले बतलाया है कि उस अनुभव की निरंतरता प्राप्त करने के लिये, उसका स्तर और उंचा उठाने के लिए कुछ और बातें बतलानी पड़ती हैंl उसे एक प्रक्रिया द्वारा निर्मित साधन कहते हैंl एक भाग हुआ कोई प्रक्रिया बतलाना, फिर उस प्रक्रिया से साधन बतलानाl दूसरा भाग है नाम-साधना और तीसरा भाग है तत्वज्ञानl

ध्यान, नाम और ज्ञान ये तीनों मिलकर अनुग्रह पूरा होता हैl ये सभी एक दूसरे के लिए अत्यंत पूरक हैं और ये एक दूसरे के लिए किसप्रकार पूरक हैं इसका अब हम विचार करेंगेl

           समझिये की श्रीगुरु एक नाम-मंत्र बतलाते हैंl उदाहरण के रूप में मानें कि ‘श्रीराम जय राम जय जय राम‘ वह नाम हैl अब नाम बतलाने के बाद, राम का स्वरुप क्या है यह बात यदि हमें समझना हो तो मुझे तत्वज्ञान का आधार, तत्वज्ञान का अभ्यास किये बिना कोई तरणोपाय नहीं हैl राम का वास्तविक स्वरुप समझे बिना, ‘श्रीराम जय राम जय जय राम‘ इस नाम साधना को हम एक उंचा स्तर नहीं दे पायेंगेl वह उंचा स्तर दिए बिना नाम साधना का रूपान्तरण ध्यान में नहीं हो पायेगाl ये बात महत्वपूर्ण हैl नाम साधना को ध्यान का दर्जा मिलना चाहियेl नाम साधना ध्यान की उंचाई तक उठना चाहियेl कई बार कहा जाता है की खाते पीते, उठते बैठते नाम लेते रहोl समर्थ रामदास स्वामी ने अपने दासबोध नामक ग्रन्थ में कहा है कि नाम किसी भी समय लेना चाहियेl आपत्ति काल में लें, विपत्ति काल में लें, जीत में लें, हार में लें इत्यादि इत्यादिl ऐसी एक लम्बी सूची समर्थ रामदासजी ने लिख रखी हैl ये बहुत अच्छी बात है और उसकी आवश्यकता भी है, लेकिन उतना ही काफी नहीं हैl  हमें अपनी साधना एक ऊँचे स्तर तक ले जाने की आवश्यकता हैl उस नामसाधना को ध्यान का स्तर देना हैl ध्यान का दर्जा देने के लिये ‘राम’ क्या है यह समझना होगाl राम का और मेरा क्या सम्बन्ध है यह भी समझना होगाl हम जो करते हैं, जो बोलते हैं, जो पढ़ते हैं उसके पीछे क्या विचार है?, उसके पीछे क्या तत्वज्ञान है?, विचार का क्या आधार है? ये सभी बातें समझ लेने की अत्यंत आवश्यकता होती हैl इसके लिए किसी का आधार लेना पड़ता है, हाथ थामना पड़ता हैl ये हाथ थामना और हाथ पकड़कर चलाना ही अनुग्रह हैl अनुग्रह का यह स्वरुप यदि ध्यान में रखा जाय, तो जिसे भी एक ख़ास उंचाई प्राप्त करना हो उसे अनुग्रह के विभिन्न चरणों से बच कर आगे बढ़ना संभव नहीं हैl हम लोग, नाम, ध्यान और ज्ञान इन तीनों बातों पर, जो एक दूसरे के लिए अत्यंत पूरक हैं, विचार कर रहे थेl नाम साधना के लिए तत्वज्ञान पूरक हैl स्वामी रामदास श्रीराम को संबोधित कर कहते हैं ‘तुझिया वियोगे जीवित्व आले‘ l अर्थात आपके वियोग के कारण मुझे यह जीवभाव प्राप्त हुआ हैl अब जब स्वामी रामदास ऐसा कहते हैं तब उन्हें किस राम का वियोग अभिप्रेत है? क्या दशरथ पुत्र राम के वियोग से जीवभाव मिला है? श्रीरामजी के सम्बन्ध में जब स्वामी समर्थ कुछ कहते हैं तब उन्हें राम के किस स्वरुप के बारे में कहना है यह भी समझना बहुत जरुरी बात हैl  स्वामी रामदासजी की गाथा नामक रचना में एक सुंदर विचार है :- एक राम आहे खरा l  तिकडे गुरु परम्परा ll  अर्थात एक राम हैं जो सच्चे हैं और वे मेरी गुरु परम्परा से आते हैंl अब एक राम सच्चे हैं इसका क्या अर्थ लिया जाय? यदि एक राम सच्चा है तो दूसरा कैसे हो सकता है? लेकिन ऐसा कहना भी मुश्किल हैl एक जो सच्चा राम है उसके साथ ही मेरी गुरु परंपरा है, वही मेरे गुरु हैंl जब सच्चा राम है तो उनका प्रतिद्वंदी होना ही चाहियेl इनमें से किसके वियोग  से जीवभाव हुआ ऐसा प्रश्न निर्माण होता हैl तो उसका उत्तर है, - मैं वास्तव में आत्मरूप होते हुए भी जब मुझे आत्मा का वियोग हुआ तब से मैं अपनेप को जीव समझने लगाl अर्थात मुझे उस आत्माराम का वियोग हुआl  अर्थात ‘मैं आत्माराम हूँ‘ इसकी प्रतीति मुझे नहीं रही या इसका भान मुझे नहीं रहाl मैं आत्मा हूँ, मैं आत्माराम हूँ यह ज्ञान मुझे होना चाहिये था लेकिन वह ज्ञान मुझे नहीं हुआl अतः ‘मैं जीव हूँ’, इस अज्ञान को पकड़कर बैठा रहाl इस अज्ञान के दूर होने के लिये स्वामी रामदास आर्तता से कहते हैं ‘तुजविण रामा मज कंठवेनाl अर्थात हे राम आपके बिना मैं रह नहीं पाउँगाl अब ये राम कौन से राम हैं? क्योंकि अब तक कई राम हो चुके हैंl दो चार राम हमारे सामने उपस्थित होने पर तत्वज्ञान के आधार के बिना किस राम का किस स्थान पर वर्णन किया गया है यह हमारे ध्यान में नहीं आ पायेगाl कोदंधारी राम सगुण साकार राम हैं l स्वामी रामदासजी ने ‘प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा’ अर्थात प्रातःकाल में श्रीरामजी का चिंतन करना चाहिये’, ऐसा जब कहा है तब वे कोदंडधारी राम का, सगुण साकार राम का चिंतन करने के लिए कहते है lराम की आज्ञा से व्यवहार करें’ ऐसा जब  स्वामीजी कहते हैं तब वे ईश्वर रूप राम के बारे में कह रहे हैंl जब हम रामरूप होने की इच्छा करते हैं तब वे राम ब्रह्मरूप राम हैंl जिनके आधार से, जिनकी सहायता से हमें रामरूप होना संभव हो सकता है वे गुरु-रूप राम हैंl कोदंडधारी राम, ईश्वर रूप राम, गुरु-रूप राम और  आत्माराम या ब्रह्मरूप राम इसप्रकार चार राम हुएl ये चारों राम यदि समझना हो तो वेदान्तशास्त्र या तत्वज्ञान का आधार लेना ही होगाl राम का स्वरुप समझे बिना, श्री समर्थ स्वामी रामदास जो कहना चाह रहे हैं उसका मर्म हमें समझ में नहीं आयेगाl वह मर्म समझे बिना अनुग्रह का अर्थ भी हमारी समझ में नहीं आयेगाl

           इस तरह नाम, ध्यान और ज्ञान का आपस में जुड़ाव है, सम्बन्ध हैl तत्वज्ञान जानें बिना यह तालमेल ध्यान में नहीं आ सकता l अतः अनुग्रह देनेवाला शब्दज्ञान में पारंगत होना चाहियेl उसे तत्वज्ञान निश्चित और सुन्दर शब्दों में प्रस्तुत करते आना चाहिएl जिसका जैसा अधिकार हो उसके अनुसार उसे बतलाकर समझाना आना चाहिएl हमारे यहाँ अनेकों वारकरी (महाराष्ट्र के एक वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी) आते हैं जिनका अत्यंत सामान्य उद्देश होता हैl कोई व्यक्ति बहुत शराब पीता हैl फिर उसकी गली के लोग उसे पकड़कर ले आते हैंl उसे कहते हैं कि चलो तुम्हें माला पहनाएंगे {माला पहनाना –अनुग्रह का एक प्रकार है )l उसे माला पहनाने का उद्देश सिर्फ इतना ही होता है कि वह शराब पीना छोड़ देl इस सामान्य उद्देश से वह व्यक्ति अनुग्रह ले लेता हैl अब देखिये अनुग्रह किस स्तर पर आ गया? गली के लोग उसे पकड़कर ले आते है और ले आने पर कहते हैं कि, ‘दस साल से यह शराब पी रहा हैl यह लत छुडाने के लिए इसके गले में माला डाल दीजियेl अब माला पहनाना चाहिए या नहीं? क्योंकि उस व्यक्ति को ब्रह्म नामक शब्द भी मालूम नहीं हैl उसे कोई भी जानकारी नहीं हैl उसके बावजूद इस प्रश्न का उत्तर “‘हाँ , पहनाना चाहिए“’ हैl यदि सचमुच अनुग्रह लेने से उसकी शराब पीने की आदत छूट जाती है तो अच्छा ही हैl लेकिन यदि सचमुच छूट जाती है तब! लेकिन हम यह देखते हैं कि कुछ लोग फिर से पीना शुरू कर देते हैं और जो भी माला-वाला पहनी हुई हो, उसे खूंटी पर टांग देते हैं और कहते हैं कि ‘फिर ऐसे ही अनुग्रह लेने का मन हुआ तो फिर से पहन लेंगे या फिर से लोग उठा लाये तो पहन लेंगेl‘ अनुग्रह का यह भी एक स्तर है यह अत्यंत निचले स्तर का अनुग्रह हैl प्रश्न है ऐसे व्यक्तियों को अनुग्रह दिया जाय या न दिया जायl इसका उत्तर ‘हाँ’ है क्योंकि यहाँ प्रश्न कर्तव्य का हैl यह प्रश्न अनुग्रह देनेवाले की प्रतिष्ठा का नहीं हैl मैं जानबूझकर ऐसा कह रहा हूँ इसका एक कारण हैl ‘ऐसे लोगों को हम अनुग्रह नहीं देते हैं’ ऐसा कहने से मुश्किल हो जाती हैl इस उत्तर का अर्थ निकलता है कि दया नामक चीज अनुग्रह देनेवाले के पास नहीं हैl यदि दया नहीं हो तो अनुग्रह देनेवाले के पास एक गुण कम हो जाता हैl एक गुण भी अगर कम हो जाए तो उसके पास अनुग्रह देने की योग्यता नहीं रह जातीl यह ‘दो और दो चार‘ ऐसा सीधा हिसाब हैl
क्रमशः...
 

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