अनुग्रह किस बात का किया जाय? परम्परा से जो ज्ञान मिला है, जो साधना पद्धति चली आ रही
है, जो कुछ भी मंत्र चले आ रहे हैं, जो कुछ नाम-स्मरण चला आ रहा है,
जो भी
प्रक्रिया चलती आ रही है वह सब आगे आने वाले को देना – ऐसा अनुग्रह का विशेष
स्वरुप हैl परमार्थ क्षेत्र के विभिन्न सम्प्रदायों में इस प्रकार अनुग्रह दिया
जाता है। सम्प्रदाय में सम्यक ज्ञान प्रदान किया जाता हैl
यह सम्यक ज्ञान पहले से चला आ रहा है और अनुग्रह देनेवाले को वह परम्परा से
प्राप्त होता हैl इस प्रकार पहले से चला आ रहा सम्यक ज्ञान आगे आने वाले व्यक्ति को देने की
परम्परा चलती रहती हैl इस परम्परा को सम्प्रदाय कहते हैंl सम्प्रदाय शब्द हम
अखबारों में बार बार पढ़ते हैंl उदाहरण स्वरूप ‘सांप्रदायिक
दंगे!’ अखबार में इस शब्द का व्यापक दुरूपयोग करने के कारण
उस शब्द का सच्चा अर्थ कहीं खो गया हैl सम्प्रदाय
का अर्थ है सम्यक प्रदान और सम्यक प्रदान का अर्थ है जो पिछले समय से चली आ रही
ज्ञान परम्परा है, साधन परम्परा है, वही परम्परा अगले व्यक्ति तक पहुंचानाl इसे
कहते हैं सम्प्रदाय चलाना, सम्प्रदाय आगे ले जानाl सम्प्रदाय शब्द सुनते ही हमारे
विचारों में मठ, आश्रम आदि संकल्पनाएँ तैरने लगती हैंl कोई संगठन होता है, उसका
कुछ संविधान होता है, कुछ विशेष उत्सव होते हैंl मोटे तौर पर सम्प्रदाय का यही स्वरुप हमारे सामने आता हैl
यह ठीक ही है और यही स्वरुप होना भी चाहिएl लेकिन केवल उतना ही होने से वह सम्प्रदाय नहीं बन
जाताl सम्प्रदायों में एक और अनुभव की बात है कि एक मठ स्थापित होने पर सालभर में इतने - मान लो कि दस उत्सव
विशिष्ट पद्धति से मनाये जाने चाहिये ऐसा निश्चित किया जाता हैl ऐसी कृतिशीलता की
आदत लग जाने पर, उस कृतिशीलता में चिन्तनशीलता कहीं खो जाती हैl इसका कारण है कि मठ चलानेवाला व्यक्ति सोचता है
कि जो मुझे बतलाया गया है, वह मैनें कर दिया हैl निश्चित किये गए सभी दस उत्सव मैने ठीक से मनाये
हैं, अब
मुझ पर कोई जिम्मेदारी बाकी नहीं बची, लेकिन यह सोच गलत है। सम्प्रदाय को इसके अलावा कुछ अधिक करना जरूरी
हैl वह है कि पहले से चला आ रहा सम्प्रदाय का ज्ञान, मन्त्र, साधना पद्धति आगे आने वाले
शिष्यों को देना हैl
जो अनेक सम्प्रदाय या अनुग्रह की अनेक पद्धतियाँ हैं, उन सभी पद्धतियों का उद्गम
भगवान् शंकर हैंl उसकी कथा कुछ इस प्रकार हैl
एक बार भगवान् शंकर माँ पार्वती को अनुग्रह दे रहे थेl उस
अनुग्रह का ज्ञानोपदेश मत्स्येन्द्रनाथजी ने सुनाl उन्होंने उन दोनों का संवाद
मछली के रूप में चोरी से सुना था l अतः मत्स्येन्द्रनाथजी को जो बोध हुआ, ज्ञान
हुआ वह आदिशंकर भगवान् से प्राप्त हुआ हैl बाद में मत्स्येन्द्रनाथजी से गोरखनाथ,
गोरखनाथ से गहिनीनाथ, गहिनीनाथ से निवृत्तिनाथ, निवृत्तिनाथ से ज्ञानेश्वर महाराज
और ज्ञानेश्वर महाराज के आगे जो परम्परा चलती आ रही होंगी, वे सभी भगवान् शंकर के
अनुग्रह द्वारा दिये गये ज्ञान की
परम्परा से चली आ रही हैंl ऐसी ज्ञान परम्परा को कहते हैं सम्प्रदायl तब से
अनुग्रह की जो पद्धति चली आ रही है वह उस सम्प्रदाय में जैसी पहले थी वैसी ही अब
भी हैl इसका अर्थ यह हुआ कि अनुग्रह की जो पद्धति है, जो अनुग्रह का तत्वज्ञान है
वह मत्स्येन्द्रनाथजी ने चुराया हुआ हैl अर्थात वह तत्वज्ञान जब मैंने सुना तब
मैंने भी चुराया हुआ ही सुना हैl यहाँ ‘मैं’ कोई विशेष व्यक्ति न होकर जिसने भी वह
तत्वज्ञान सुना वही वह व्यक्ति है जिसने चुराया हुआ तत्वज्ञान ही सुना हैl चुराया
हुआ तत्वज्ञान ही उसने आगे आने वाले व्यक्ति को दिया हैl अतः ‘मैंने कुछ दिया’ ऐसा भाव उसके मन में आने की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि वह
उसका स्वयं का नहीं है और वह दूसरे को देना उसके कर्तव्य का ही भाग हैl जो पहले से चला आ रहा है वही केवल आगे आने वाले व्यक्ति को
देना हैl अतः यह कर्त्तव्य करते समय “मैं दाता हूँ“, ऐसा भाव उसके मन को छू भी नहीं पाताl अतः अनुग्रह देने
वाले के मन में ‘”मैं अनुग्रह देने वाला विशेष व्यक्ति हूँ“, ऐसी श्रेष्ठता की भूमिका ही नहीं रहतीl दूसरी बात यह है कि अनुग्रह में कृपा जरूर है
लेकिन वह अनुग्रह लेनेवाला अनुभव कर रहा है, देनेवाले के मन में कृपा का अंशमात्र
भी नहीं होता, वह सिर्फ अपना काम करता हैl लेनेवाला समझता है कि मेरा कल्याण हो
गया है, मेरा जीवन बदल गया है, मेरे जीवन का स्तर बहुत उंचा उठ गया हैl अनुग्रह
लेने वाले को बड़ा संतोष होता है
और उसमें उसे अनुग्रह देनेवाले की दया, अनुकम्पा नजर आती है, कृपा नजर आती हैl यह
सभी अनुग्रह लेनेवाले को नजर आती है, लेकिन देनेवाले के मन में कुछ दिया है ऐसा
भाव नहीं होताl इसका एक कारण भी हैl कर्तृत्व नाम की एक बात होती हैl “में कर्ता,
में कर्ता“ ऐसा जो कर्तृत्व का अहंकार व्यावहारिक जीवन में भरा हुआ है, वह अनुग्रह
देनेवाले के पास रंच मात्र भी बाकी नहीं हैl अनुग्रह के सन्दर्भ में इस भूमिका को
ध्यान में रखने की बड़ी आवश्यकता है।
साधना पद्धति बतलाना अनुग्रह
का मूल स्वरुप हैl साधना पद्धति बतलाना, साधना की प्रक्रिया बतलाना, साधना से
संबंधित तत्वज्ञान बतलाना और उस तत्वज्ञान को बतलाते समय व्यक्ति में विशिष्ट शक्ति का संक्रमण करना यह
सभी, वह मूल स्वरूप हैl अनुग्रह करने वाले को वह शक्ति परम्परा से प्राप्त होती
हैl वही शक्ति उसे शिष्य में संक्रमित करनी होती है l इस हेतु अनुग्रह दाता माध्यम
की तरह होता हैl उदाहरण स्वरुप किसी घर में बिजली का कनेक्शन बिजली के तार द्वारा दिया गया हैl लेकिन वह कनेक्शन का तार
यदि कहने लगें कि उस घर को बिजली की आपूर्ती मैं करता हूँ, तो वह गलत बात होगीl वे
तार बिजली उत्पादन नहीं कर रहे हैंl बिजली के आपूर्ति केंद्र से निकली बिजली,
वितरण की ट्रांसमिशन लाइन से इन तारों को
जोड़ देने के कारण उस केंद्र से प्राप्त बिजली, घर को मिलती है l अतः जोड़ने वाले तारों को अहंकार होने का
कोई कारण नहीं रहताl लेकिन साथ ही यह भी सत्य है कि उस तार के बिना बिजली घर तक
नहीं पहुंचतीl उस तार में कोई अहंकार नहीं होता, ऐसा कोई विचार नहीं होता कि मैंने इस घर पर कृपा की है,
अनुकम्पा की है, दया की है या अनुग्रह किया हैl यही अनुग्रह देनेवाले की
भूमिका हैl परमार्थ में अनुग्रह की यही विशेष बात है और यही विशेष बात ध्यान में रखने योग्य हैl सारांश में अनुग्रह
देनेवाला अपने आप को कभी भी विशेष नहीं समझताl
अनुग्रह में एक और बात शक्ति
संक्रमण की होती हैl अब कौन और किसको या किसमें यह शक्ति संक्रमण करता है, यह भी
समझ लेते हैंl जिसके पास यह शक्ति होती है उसे ही यह शक्ति संक्रमण करना है इसमें
कोई शंका नहीं हैl साथ ही जो यह शक्ति सम्हाल सके उसी में यह शक्ति संक्रमण करना
है, अर्थात दो बातें हैंl एक यह कि संक्रमण करनेवाले के पास शक्ति सामर्थ्य होना
चाहिये जो की उसका स्वयं का नहीं है बल्कि उसे परम्परा से प्राप्त हुआ हैl दूसरी बात यह कि जो लेनेवाला है उसमें भी कुछ
सामर्थ्य होना चाहिये l इस सन्दर्भ में संत एकनाथ महाराज की एक ओवी है :-
जो शब्द ज्ञानें पारंगतु l ब्रम्हानंदे सदा डुल्लतु l
शिष्य प्रबोधनी समर्थु l यथा उचितु
निजभावे ll ( एकनाथी भागवत ३ -२९८
)
अर्थात जो शब्दज्ञान में पारंगत है, ब्रह्मानंद में लीन
रहता है और शिष्य को तत्वज्ञान का बोध देने में समर्थ है वही उचित रूप से अनुग्रह
कर सकता हैl
यहाँ अनुग्रह देने का अधिकारी
कौन हो सकता है इस बात का एकनाथ महाराज ने विचार किया हैl जो अनुग्रह देनेवाला है
वह व्यक्ति शब्दज्ञान में पारंगत होना चाहियेl इसका अर्थ है कि उसे
अध्यात्मशास्त्र की पूर्ण जानकारी होना चाहियेl अब हम देखेंगे कि अध्यात्मशास्त्र
के भी कुछ भाग हैंl वे भाग हैं प्रस्थानत्रयी के गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र l इन सभी विषयों का उसे अच्छा ज्ञान होना
चाहिये। गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र ग्रंथों पर भी अनेक टीकाएं हैं, अनेक मत-मतांतर हैं, बहुत से वाद हैंl उन वादों का, उन बातों का सम्यक ज्ञान
उसके पास होना चाहिएl अर्थात वह शब्द -ज्ञान में निष्णात होना चाहियेl उसे “शाब्दे
च परे च निष्णातःl“ होना चाहियेl उसे शब्दज्ञान में पारंगत क्यों होना चाहिये
इसका भी एक कारण हैl जिस पर यह सम्प्रदाय संक्रमित करना हो, जिसे अनुग्रह देना हो,
उसके मन में सैकड़ों शंकायें निर्माण होने की सम्भावना रहती है और वे निर्माण होती
ही हैंl फिर वे शंकाएं प्रश्नरुप में सामने आती हैंl प्रश्नरुप में उपस्थित शंकाओं
का व्यवस्थित और उचित समाधान करने की क्षमता अनुग्रह देनेवाले के पास होनी चाहिएl
यदि टालमटोल वाले उत्तर, मुंह बंद करने वाले जवाब उसके द्वारा दिए जा रहे हों, तो
यह समझने में कोई आपत्ति नहीं कि वैसी क्षमता उसके पास नहीं है। वह शब्दज्ञान में पारंगत
नहीं हैl मुंह बंद करने वाले जवाब कई प्रकार के होते हैंl “कुछ वर्ष बिताये बिना
यह तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा“ पहला उत्तर हैl “समय आये बिना वह हो नहीं सकता“
दूसरा जवाब हैl “अभी तुम्हारी समझने की योग्यता नहीं हुई है“ तीसरा उत्तर हैl इस प्रकार के उत्तर जब दिए जांये तो वे मुंह बंद करने वाले जवाब होते हैं l
उत्तर देनेवाले को योग्य उत्तर देना चाहियेl सुननेवाला उत्तर समझे या ना समझे, उसे
स्वीकार करने की उसकी क्षमता हो या ना हो लेकिन उत्तर देनेवाले ने अधिक से अधिक
सरल भाषा में उत्तर देना चाहियेl इस हेतु उसे शब्दज्ञान में पारंगत होना चाहियेl
परमार्थ के बारे में जो ग्रन्थ या साहित्यिक रचनाएँ उपलब्ध हैं वे अधिकतर
प्रश्नोत्तर रूप में ही हैंl श्रीमदभगवद्गीता भी प्रश्नोत्तर रूप में ही हैl
अर्जुन ने प्रश्न पूछे हैं और भगवान श्रीकृष्ण ने उनके उत्तर दिए हैंl आप श्रीमद्भागवत देखें, उसमें अनेक प्रश्नकर्ताओं ने
प्रश्न पूछे हैं और अनेक बड़े बड़े लोगों ने उनके उत्तर दिये हैं l सनंदन, शुक, नारद, और साक्षात् भगवान् ने भी शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर दिए
हैंl उनकी शंकाओं का उचित ढंग से, व्यवस्थित रूप से, शास्त्रसम्मत पद्धति से
समाधान किया हैl हमारे पारमार्थिक ग्रंथों में भी प्रश्नोत्तर पद्धति प्रचलित नजर
आती हैl इसका अर्थ यह हुआ कि शिष्यों द्वारा प्रश्न अपेक्षित होते हैं l उनके मन
में प्रश्न निर्माण होना अपेक्षित है और संभव भी हैl वे निर्माण होने चाहिये और उन
सारे प्रश्नों के उत्तर देने की क्षमता अनुग्रह देनेवाले के पास होना चाहियेl अतः
उसे शब्दज्ञान में पारंगत होना चाहियेl यही बात एकनाथ महाराज ने अपनी ओवी (छंद) में कही हैl
लेकिन केवल इतना ही काफी
नहीं हैl “ब्रम्हानंदे सदा डुल्लतु“ अर्थात शब्दज्ञान से जो ब्रह्म तथा
आत्मा नामक तत्व बतलाना है उसका उसे अविकल और अखंड अनुभव होना चाहियेl यह
दूसरी योग्यता है - जो अनुग्रह देने वाले
के पास होना चाहियेl संतों के शब्द सुन्दर होते हैं और उनके शब्दों में कई बार कुछ
बारीकियां रहती हैंl वे बारीकियां अगर ध्यान में आ जाएँ तो ठीक वरना हम ठगे जाते
हैंl हमारे पास सन्दर्भ में मूल ओवी है कि ‘जेचि क्षणी अनुग्रह केला l तेचि क्षणी मोक्ष
झाला l ‘ अर्थात
जिस क्षण अनुग्रह लिया उसी क्षण मोक्ष प्राप्त हुआl इन शब्दों से हमें लगेगा
कि मोक्ष मिलना अत्यंत सरल हैl अगर मुझे इसकी बारीकियां ध्यान में न आयें तो मैं
समझूंगा कि अनुग्रह लेते ही मुझे मोक्ष प्राप्त हो गया है और आगे जो साधना करना
चाहिये वह न करते हुए यदि मैं शांत बैठा
रहूंगा तो और भी बड़ी मुश्किल होगीl ये बारीकियां क्यों रखी जाती हैं इस प्रश्न का
उत्तर उपनिषद में है कि “परोक्षप्रिया ही देवाः” अर्थात देव परोक्षप्रिय
होते हैंl परोक्षप्रिय शब्द का अर्थ है कोई बात स्पष्टता से न बतलाते हुए दुरान्वय
से बतलानाl अब प्रश्न उठता है कि दुरान्वय से बात क्यों बतलाई जाती है? स्पष्टता
से क्यों नहीं बतलाई जाती? लेकिन होता यह है कि किसी बात का आकलन हमारी बुद्धि को
हो गया है ऐसा जब हमें लगे तो उसी क्षण उसका अनुभव भी हो गया है ऐसी खुशफहमी होने
की संभावना रहती हैl इस तरह की गलत धारणा होना उचित नहीं
है, उसके कारण हमारे प्रयत्न बीच में ही रुक जायेंगे l अतः योग्य व्यक्ति से
मार्गदर्शन मांगा जाये इस हेतु यह युक्ति की गयी हैl योग्य व्यक्ति का पूर्ण
मार्गदर्शन मिलते ही हमें यह पता चल जाता है कि हम जैसा और जितना समझ रहे थे वह
वैसा और उतना ही नहीं हैl वह पूर्णतया
प्राप्त होने के लिये अभी भी कई बातें हमें करनी होंगीl ग्रंथों से हमें शब्द रूप
ज्ञान हो जाता है लेकिन उस ज्ञान का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होना केवल तभी संभव
होगा यदि शास्त्रसम्मत और सम्प्रदाय सम्मत योग्य पद्धति से साधना की जाए और
सुयोग्य मार्ग (proper channel) से चला जाएl हमारे दैनिक
व्यवहार में कई लोगों को किसी भी समस्या का गलत फायदा उठाने की आदत रहती है, यह
सभी जानते हैंl लेकिन परमार्थ के क्षेत्र में अनुग्रह मांगने वाले को रोककर रखना
और उसके मार्ग में अडचनें डालना, ऐसी अहंकारी कल्पना सर्वथा स्वीकार्य नहीं हैl हमारे बिना
उसका काम अटक जाये या वह हमारे जरिये से ही आगे बढे, ऐसा आग्रह यहाँ त्याज्य हैl
यहाँ यह बतलाने का कारण सिर्फ इतना ही है कि व्यावहारिक संसार की अहंकार पुष्ट
करने वाली हमारी जो आदतें या पद्धतियाँ होती हैं, वे परमार्थ के क्षेत्र में भी
रहने की संभावना हम मानकर चलते हैं। ऐसा मानकर चलना सहज रूप से होता है क्योंकि
स्वार्थी और अहंकारी बरताव का अनुभव हमारी आदत होती हैl अतः परमार्थ के क्षेत्र में प्रवेश करते समय इस बात का
विशेष ध्यान रखना होगा कि व्यावहारिक जगत की सारी आदतें हमें पूरी तरह छोड़ देनी
होंगी वरना प्रवेश हो ही नहीं पायेगाl व्यावहारिक जगत के हमारे निष्कर्ष यदि हम
आध्यात्मिक क्षेत्र या परमार्थ के क्षेत्र की बातों पर आजमानें लगें तो परमार्थ
क्षेत्र के बारे में बहुत सी गलत धारणाएं पैदा हो जाती हैं और परमार्थ एक चर्चा और टीका-टिप्पणियों
का विषय बन जाता हैl ऐसी गलत धारणाएं न हों इसलिए एक बात गौर से समझना चाहिए कि
यहाँ अनुग्रह देने के बारे में कोई भी किसी को भी रोकता नहीं हैl किसी विशिष्ट
व्यक्ति के द्वारा ही यह बात होना चाहिये ऐसी कोई अनुग्रह की सोल एजेंसी अर्थात
एकाधिकार किसी का भी नहीं हैl
व्यावहारिक जीवन में किसी बड़ी कंपनी का किसी राज्य या जिले में एजेंट नियुक्त रहता
हैl कंपनी के सारे लेन-देन के काम उस एजेंट के
द्वारा ही होते हैंl इस लेन-देन का लाभ या कमीशन उस एजेंट को देना पड़ता है, ऐसा नियम रहता हैl वितरण की
ये जो व्यवस्था है, उसकी दृष्टि से यदि अनुग्रह की ओर देखेंगे तो मुश्किल होगीl “परोक्षप्रिया
ही देवाः” इस दृष्टि से कहा है कि अगर साधक केवल शब्दों को समझ कर ही यह सोचने
लगे की उसे ज्ञान प्राप्त हो गया है तो वह वास्तविक कल्याण से वंचित रहेगाl अतः संतों के वचनों की बारीकियां, इसलिए नहीं
होतीं कि हम उनके पास जाने के लिए बाध्य हो जाएँ और समझें या उनके बिना हमारा काम
अटक जाएगा वरन इस सीधे
सच्चे और कल्याण के हेतु से हैं कि हमें सत्य ठीक से समझ में आये और हम किसी भ्रम
में न रहेंl वरना ‘मैं देह हूँ’, ‘मैं मन हूँ’, ‘मैं प्राण हूँ’, ‘मैं ब्रह्म हूँ’, इस प्रकार से भ्रमों की एक लम्बी लाइन लग सकती हैl इस दृष्टि से अनुग्रह देने वाला उस
अनुग्रह के विषय आत्मा, ज्ञान, ब्रह्म इन तत्वों का सतत
अनुभव लेनेवाला, ब्रह्मानंद में लीन रहने
वाला होना चाहिये l उस ब्रह्मानंद के अनुभव के आनंद में वह हमेंशा मगन रहे ऐसी
सहजता उसमें होनी चाहियेl
वह, “शिष्य प्रबोधनी
समर्थु” इस एकनाथ महाराज के वचन के अनुसार सामने उपस्थित शिष्य के स्तर को
जानकर, उसकी योग्यता समझ कर, उसकी अवस्था पहचान कर उस के अनुरूप, उसके स्तर के
अनुसार उसे प्रबोधन करने, उपदेश करने और ज्ञान देने में समर्थ होना चाहियेl “यथा
उचितु“ का अर्थ है कि शिष्य का अधिकार समझ कर जिस पद्धति से प्रबोधन करना
चाहिये उस पद्धति से करने में समर्थ होl “ निज भावे “ का अर्थ है अनुग्रह देनेवाले
को अपना समझ कर अर्थात वह किस स्तर पर है, किस स्थान पर है, उसमें कौनसे गुणों का
आधिक्य है, वह गुण सत्व है, रज है या
तमोगुण है – इन सभी बातों का विचार कर जिसप्रकार से शिष्य का प्रबोधन उत्तम रीति
से हो सके उस प्रकार से अनुग्रह देना उसे
आना चाहियेl ये तीनों बातें जिसके पास हों, वह अनुग्रह देने के लिए समर्थ हैl
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