Friday, May 13, 2016

अनुग्रह - भाग ६

अनुग्रह का विचार करने के लिए जो ओवी हमारे सामने थी :-  

जेचि  क्षणी अनुग्रह केला l   तेचि क्षणी मोक्ष झाला l
बंधन काही आत्म्याला l     बोलों चि नये ll        ( दासबोध ८-७-५९ )
इसमें दूसरी पंक्ति में आत्मा पर जो बंधन बतलाया है वह हमारा भ्रम हैl इस भ्रम से मुक्त होने के लिये, इस भ्रम को समाप्त करने के लिये, हमें इन तीनों प्रकार की साधनाओं का उपयोग होता हैl संत ज्ञानेश्वर महाराज की इस सन्दर्भ में एक सुन्दर ओवी है :-
जेणें भ्रान्ति पासूनि हिरतले l गुरुवाक्यें मन धुतले l
मग आत्मस्वरुपी घातले l  रोउनिया ll           (ज्ञानेश्वरी ५ – ३४)
अर्थात जब भ्रांतियां मिट जाती हैं और गुरुवाक्य से मन धुलकर निर्मल हो जाता है, तब साधक का चित्त आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता हैl

यहाँ ‘गुरुवाक्य’ शब्द का प्रयोग किया गया हैl इस गुरुवाक्य का तत्वज्ञान के साथ और ध्यान के साथ सम्बन्ध हैl गुरुवाक्य अर्थात गुरु के मुख से निकला वाक्य और यह जो विशिष्ट वाक्य है इसे महावाक्य कहते हैंl जो वाक्य गुरु के मुख से निकला वह महावाक्य होना ही चाहियेl अन्य किसी भी वाक्य को ‘गुरुवाक्य’ ऐसी संज्ञा या गुरुवाक्य का दर्जा नहीं हैl श्री गुरु बहुत सी बातें कहते हैं, बहुत सी बातें समझाते हैं, अनेक बारीकियां समझाकर बतलाते हैं, विस्तार से समझाते हैं – ये सब बातें होती हैंl लेकिन जिसे गुरुवाक्य कहते हैं, उस गुरुवाक्य में महावाक्य का समावेश होना ही चाहिएl ‘वह तुम हो’ यही है वह महावाक्य! चार उपनिषदों में चार महावाक्य हैंl केवल महावाक्य ही गुरुवाक्य है इतना यदि ध्यान में रखा जाये तो गुरुवाक्य का निश्चित और स्पष्ट अर्थ हमें मालूम होता हैl मैं कई बार यह विचार बतलाता रहता हूँ कि परमार्थ में जो सबसे आवश्यक बात है वह है विचारों की निश्चितता और स्पष्टताl यदि विचारों में स्पष्टता नहीं होगी तो परमार्थ में जो अनेकानेक संभ्रम हैं उनमें और बढ़ोतरी होगीl ये जो संभ्रम या उलझनें हैं उन्हें हम ही पैदा कर देते हैंl उसके लिए किसी बाहरी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होतीl पारमार्थिक कहलाने वाले लोग ही पारमार्थिक क्षेत्र में ढेरों संभ्रम या उलझनें  पैदा करते हैंl इन संभ्रमों से, उलझनों से बाहर निकलने का एक ही उपाय है – विचारों की स्पष्टता, निश्चितता और उस स्पष्टता को बनाए रखनाl महावाक्य बहुत महत्वपूर्ण हैl ‘वह तुम हो’ यह वाक्य श्रीगुरु के मुख से निकलने पर उसे गुरुवाक्य का दर्जा प्राप्त होता हैl महावाक्य उपनिषदों में हमारे पढने में आता है, कईयों से सुनने में आता हैl लेकिन उसे पढ़ना या कई लोगों के मुख से सुनना और गुरुमुख से सुनने में निश्चित रूप से बहुत अंतर हैl यह अंतर परिणाम की दृष्टि से हैl गुरुमुख से निकला महावाक्य परिणाम की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैl आइये हम एक व्यावहारिक अनुभव देखेंl एक डाक्टर मरीज से कहता है कि तुम सिगरेट मत पियोl लेकिन उस वक्त खुद डाक्टर के मुंह में सिगरेट लगी रहती हैl अब डाक्टर ने कहा तो है कि सिगरेट मत पियोl मरीज को उसके स्वास्थ्य की दृष्टि से वह स्वीकार्य भी होगाl लेकिन उसके मन में ऐसा विचार आये बिना नहीं रह सकता कि ‘जो व्यक्ति खुद सिगरेट पी रहा है वही मुझे सिगरेट न पीने की सलाह दे रहा हैl यह बात कुछ ठीक नहीं हैl’ इसका अर्थ यह हुआ कि सिगरेट पीने से मना करते समय तो कम से कम डाक्टर के मुंह में सिगरेट लगी हुई नहीं होना चाहियेl इतना परहेज डाक्टर के लिए जरुरी हैl वरना उसकी सलाह परिणामकारक नहीं होगीl जो बात बतलाई जा रही है उससे यदि कहने वाले का बर्ताव मेल नहीं खाता और उसके विचार मेल नहीं खाते तो उसके शब्दों का परिणाम बहुत कम हो जाता हैl इसलिए जो अनुभव सम्पन्न है, जिसने अनुभव लिया है उसके मुख से सुना हुआ शब्द और जो अनुभव संपन्न नहीं है और जिसका आचरण उसके अपने उपदेशों के अनुसार नहीं है उसके मुख से निकला शब्द, इन दोनों में जमीन और आसमान का अंतर है यह अंतर हमारे ध्यान में नहीं आताl इसका एक ही कारण है कि हमें लगता है कि इस प्रकार के जो महावाक्य हैं उन्हें किताबों में, ग्रंथों में पढ़कर भी हम वह अनुभव प्राप्त कर सकेंगे या अनेकों प्रवचन सुनकर उनकी एकाध कथरी या गुदड़ी बना लेंगे तो हमारा काम बन जाएगाl सौ – दो सौ  प्रवचन सुनने के बाद पैबन्दों की एक अच्छी गुदड़ी तैयार हो जाती है और हम समझने लगते हैं कि अब हमें अच्छी तरह आकलन हो गया हैl हमें विषय पूरी तरह समझ में आ गया हैl समझ में तो आता है लेकिन एक सीमा तक हीl समझ में नहीं आया होगा ऐसा कोई भी नहीं कहेगाl लेकिन समझे हुए विचारों का साधना में रूपांतर करके प्रत्यक्ष अनुभव तक पहुँचने की जो करामात है, जो  कारीगरी है, जो क्षमता है वह इन सौ, दो सौ  प्रवचनों की गुदड़ी में कभी भी नहीं होतीl जब तक उपरोक्त बात ध्यान में नहीं आती तब तक गुरुवाक्य का क्या अर्थ है, गुरुवाक्य का क्या महत्त्व है यह समझ में आना कठिन हैl

हम अनुग्रह का विचार कर रहे हैंl उस अनुग्रह में गुरुवाक्य का समावेश हैl जहां श्री गुरु ने महावाक्य नहीं बतलाया है वहां अनुग्रह दिया ही नहीं गयाl जिस क्षण अनुग्रह मिलता है उसी क्षण श्रीगुरु के मुख से महावाक्य निकलना चाहियेl यह एक ही शर्त हैl और वह महावाक्य है ‘तत्वमसि‘l ‘वह तुम हो’ इस महावाक्य का आशय बहुत बड़ा हैl आशय समझे बिना उस महावाक्य स्वरुप समझना हमारे लिए कठिन होगाl महावाक्य समझाकर बतलाने वाले अनेक ग्रन्थ हैंl ‘पंचदशी’ नामक ग्रन्थ में ‘महावाक्य विवेक‘ नाम का एक अलग अध्याय हैl आदि शंकराचार्यजी के ‘उपदेशसाहस्त्री’ नामक ग्रन्थ में भी ‘तत्वमसि‘ का बहुत सुन्दर और विशद विचार किया गया हैl इन विचारों की नींव यदि तैयार हो, इन विचारों की गहराई यदि समझ में आ गई हो, इन विचारों की व्यापकता यदि समझ में आ गई हो तो गुरुवाक्य का अर्थ और उसका महत्त्व निश्चित रूप से हमें समझ में आयेगा और उसके अनुसार जो साध्य है वह भी स्पष्ट होगाl हमें ऐसा लगता है कि आत्मा बंधन में हैl लेकिन ऐसा लगना ही मिथ्या है ऐसी विवेचना हमारी समझ में आएगीl

आइये अब हम हमारी सन्दर्भ वाली समर्थ रामदास जी की ओवी के आखरी चरण का थोड़ा विवेचन करेंबंधन काही आत्म्याला l  बोलों चि नये ll आत्मा नामक वस्तु हमेशा से स्वतंत्र है, मुक्त हैl वह बंधन में कभी भी नहीं थी और न हैl लेकिन अविद्या के कारण, अज्ञान के कारण, माया के प्रभाव में हम आत्मा पर ना रहने वाले बंधन को थोप देते हैंl और ये थोपा हुआ बंधन ही भ्रान्ति कहलाता हैl

भ्रान्ति का निश्चित रूप से क्या अर्थ है? हम किसी व्यक्ति को भ्रमित कह देते हैंl हम दूसरे को भ्रमित कहते हैं लेकिन परमार्थ की दृष्टि से हम सभी भ्रमित हैंl यह बात ज़रा ध्यान में रखना होगीl किसी और को भ्रमित कहना अच्छा लगता हैl लेकिन परमार्थ की और संतों की दृष्टि से यदि विचार  करें तो वे हम सभी को भ्रमित कहते हैंl मन पर छाया हुआ यह भ्रम का मैल धो डालना होगाl भ्रान्ति के मैल से मुक्त मन आत्मस्वरूप में स्थिर होता हैl भ्रम के दो प्रकार हैं l एक प्रकार है जिसमें जो वह होता है उससे भिन्न दिखाई देता है, अर्थात सर्वत्र ब्रह्म होते हुए भी संसार नजर आता हैl भ्रम का दूसरा प्रकार है जिसमें  वस्तु कहीं और है लेकिन उसकी खोज कहीं और की जाती है अर्थात ब्रह्म यहीं अपने पास, अपने अन्दर ही है, लेकिन उसकी खोज बाहर संसार में की जाती हैl यह दूसरा भ्रम हैl ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं :-

मोटकें गुरुमुखें उदैजत दिसे l आणि हृदयीं स्वयंभचि असें l
प्रत्यक्ष फावों लागे तैसें l   आपै सयाचि ll  ( ज्ञानेश्वरी  ९- ४९ )

अर्थात सारे जग में जिसे हम खोजते हैं, बाहर कहीं ढूँढते हैं, वह आत्मा नामक तत्व अन्दर–बाहर, बाहर–अन्दर  ऐसी रोजमर्रा की भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकताl वह चारों ओर व्याप्त हैl वह जितना अन्दर है उतना ही बाहर है और जितना बाहर है उतना ही अन्दर हैl मैं अन्दर और बाहर की भाषा में इसीलिए बता रहा हूँ क्योंकि इसकी हमें आदत हैl अन्दर कुछ और होता है और बाहर कुछ और! ये हमारी व्यावहारिक विचारों की आदत हैl इसके पहले मैनें कहा था कि व्यावहारिक जगत की हमारी आदतें लेकर जब हम पारमार्थिक क्षेत्र में आते हैं तो बड़ी मुश्किल हो जाती हैl इसलिये व्यवहार की हमारी आदतों को हमें क्रमवार दूर करना होगाl उन्हें दूर करना संभव हो सके इसके लिए हमारे यहाँ आश्रम व्यवस्था बतलाई गई हैl ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम- इस प्रकार चार आश्रम बतलाये गए हैl हमारी संस्कति में ये जो व्यवस्थाएं हैं उनका उद्देश यही है कि साधक मोक्ष प्राप्ति तक का अध्ययन और अभ्यास कर सकेl वास्तव में परमार्थ क्षेत्र में अन्दर-बाहर जैसा कुछ नहीं होताl “ओतप्रोत” भाव हैl ओतप्रोत बहुत अच्छा शब्द हैl इसका अर्थ है जैसा अन्दर वैसा ही बाहर, जितना अन्दर उतना ही बाहरl ज्ञानेश्वर महाराज ने ब्रह्म को ‘सर्वत्र सदा सम’ कहा हैl वह ब्रह्मतत्व सर्वत्र है अर्थात एक भी ऐसी जगह नहीं है जहां वह नहीं हैl ऐसे इस ब्रह्मतत्व को ‘विभु’ कहते हैंl वह सदा अर्थात हमेशा हैl शास्त्रिय भाषा में उसे “अनादि-नित्य–सत्य“ ऐसा तत्व कहेंगेl वह सर्वत्र है, सदा है, सर्वत्र समरूप से हैl किसी में कम या अधिक नहींl ऐसा जो ब्रह्मतत्व है उसका अनुभव हमें लेना हैl परमार्थ का यही ध्येय है - यह विचार ध्यान में रखना, ध्यान में रखकर उसका साधना में रूपान्तर करना, साधना में ‘वह मैं हूँ ‘ इस प्रकार से रूपान्तरण करने के बाद प्रत्यक्ष ‘वह मैं हूँ ‘ ऐसा अनुभव लेना यही परमार्थ का स्वरुप हैl श्री गुरु हमें यही ‘तत्वमसि‘ महावाक्य के द्वारा समझाकर बतलाते हैं कि ‘वह तुम हो’l यह अनुग्रह का ही एक आवश्यक भाग हैl

महावाक्य का क्या उपयोग है?  महावाक्य क्या करता है? इस बारे में ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं  :-

जेणें भ्रान्ति पासूनि हिरतले l गुरुवाक्यें मन धुतले l
मग आत्म्स्वरुपी घातले l  रोउनिया ll           (ज्ञानेश्वरी ५ – ३४)

अर्थात जब भ्रांतियां मिट जाती हैं और गुरुवाक्य से मन निर्मल हो जाता है, तब साधक का चित्त आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है l

कर्म की दृष्टि से, आचरण की दृष्टि से और विचारों की दृष्टि से यद्यपि मन साफ़ स्वच्छ हो जाये फिर भी भ्रम नामक बात वैसी ही रह जाती है l भ्रम का मैल वैसा ही रह गया है, ये बात हमारे ध्यान में भी नहीं आतीl किसी व्यक्ति को उसे हमारे ध्यान में लाना पड़ता हैl संत, शास्त्रवेत्ता और श्री गुरु इस बात को हमारे ध्यान में लाते हैंl वे बतलाते हैं की यद्यपि आपका आचरण शुद्ध है फिर भी आपके मन पर एक और मैल छाया हुआ है जो आपको ज्ञात नहीं हैl वास्तव में वह एक मैल है यह ही हमें ज्ञात नहीं रहताl इस अत्यंत सूक्ष्म मन के मैल का पता लगने पर उसे दूर करने के लिये अलग से कुछ प्रयत्न करने पड़ते हैं, अलग दिशा में साधना करनी पड़ती हैl उस साधना को हमारे ध्यान में लाने का काम श्री गुरु उनके अनुग्रह के द्वारा करते हैंl 
क्रमशः... 

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