समर्थ स्वामी रामदासजी का प्रसिद्ध वचन है :-
मी कर्ता ऐसे म्हणसी l तेणे तू कष्टी होसी l
मी कर्ता ऐसे म्हणसी l तेणे तू कष्टी होसी l
अर्थात मैं कर्ता हूँ ऐसा सोचते हो इसीलिये तो कष्ट पाते होl जिस समय हमें यह ज्ञात होगा कि मैं कर्ता नहीं हूँ, उस समय
“कर्ता कौन है” ऐसा प्रश्न उपस्थित होता हैl अब इस प्रश्न का
उत्तर यदि हमें अच्छी तरह मिल जाएगा तो कर्तृत्व नामक चीज को हम अपने आप से दूर रख
सकते हैंl उसके बाद भोक्तृत्व नामक चीज भी अपने आप निकलकर
दूर हो जाती हैl और यदि कर्तृत्व – भोक्तृत्व दूर हो जाएँ तो
सारी झंझट ही ख़त्म हुई समझोl जब मुझे “मैं भोक्ता हूँ” ऐसा
लगता है तो उसके परिणाम स्वरुप ऐसा निश्चित होता है कि मुझे भोगों की आवश्यकता हैl जब मेरे लिये भोगों की आवश्यकता निश्चित होती है तो उन भोगों को उपलब्ध
करवाने की जिम्मेदारी मुझ पर है ऐसा भी निश्चित होता हैl
उन्हें किस प्रकार प्राप्त करना है यह भी निश्चित होता हैl
इस प्रकार आगे एक के बाद एक बात निश्चित होती जाती हैl
कर्तृत्व भोक्तृत्व भ्रान्ति के बारे में वेदान्तशास्त्र ने तर्कसंगत पद्धति से
विचार प्रस्तुत किया हैl
अब यदि मैं कर्ता नहीं हूँ तो फिर कर्ता कौन है? आत्मा निष्क्रिय हैl वह कुछ भी नहीं करती लेकिन उसकी सत्ता पर
ही सभी बातें घटित होती हैंl यह एक बड़ा सच है और इस सच्चाई
को ध्यान में रखने की आवश्यकता हैl आत्मा अकर्ता होते हुए भी
उसके साक्षित्व में और उसकी सत्ता के बिना कुछ भी घटित नहीं होताl साक्षी बड़ा मजेदार शब्द हैl आत्मा निष्क्रीय साक्षी
हैl क्या सक्रीय साक्षी और निष्क्रीय साक्षी में कोई अंतर
है? अदालत में साक्ष या गवाही देने बुलाया
जाता हैl अदालत में बुलाया हुआ साक्षी या गवाह अपराध में
शामिल नहीं रहता लेकिन उसने अपराध होते समय उसे देखा हुआ होता हैl अर्थात उसने देखने की क्रिया की हुई होती हैl अतः
वह सक्रीय साक्षी हैl लेकिन आत्मा निष्क्रिय साक्षी हैl सक्रिय और निष्क्रिय साक्षी के अंतर की यह बारीकी यदि हम ध्यान में रखें,
तो आत्मा को किस दृष्टि से साक्षी कहा जाता है यह बात हमें समझ में आ जाएगीl हम जब भी आत्मा साक्षी है ऐसा कहते हैं उसका अर्थ आत्मा निष्क्रिय है ऐसा
होता हैl यह बात ध्यान में रखकर हम आत्मा का वास्तविक
साक्षित्व जान सकते हैंl व्यावहारिक जीवन में साक्षी चश्मदीद गवाह होता है, घटना को देखने में
सक्रीय रहता हैl लेकिन आत्मा कुछ नहीं देखती क्योंकि उसको
आँखें नहीं होतीl अतः आत्मा साक्षी होने का अर्थ है कि उसकी
सत्ता पर ही सभी कुछ घटित होता हैl आत्मा के साक्षित्व में
उसकी कोई क्रिया नहीं हैl आत्मा के साक्षित्व के सन्दर्भ में
‘साक्षी’ शब्द का अर्थ जब भली-भांति समझ में आ जाता
है फिर ‘मैं’ अर्थात आत्मा साक्षी है का सही अर्थ समझ में आयेगाl ऐसे साक्षित्व के साथ यदि हम रह पायें तो भीतरी आनंद अक्षुण्ण रह पाता है, उसमें कोई कमी नहीं आतीl हमारा संतोष कायम रहता है, तृप्ति में कोई कमी नहीं आतीl लेकिन यदि हम साक्षित्व नहीं ला पाए तो हमारा संतोष नष्ट हो जाता हैl घर में होने वाली बातों को जो साक्षित्व की नजर से देख सकता है, उसका
जीवन आनंदमय हो जाता हैl
घर शब्द को विस्तार देकर कह सकते हैं कि जिस संसार में हम विचरण करते हैं उसकी
घटनाओं की ओर यदि हम निष्क्रिय साक्षित्व से देख सकें तो हमें आनंद की निधि मिल
जायेगीl जहां निष्क्रिय साक्षित्व है वहां आसक्ति
नहीं होती और जहां आसक्ति नहीं होती वहां आनंद में कोई कमी नहीं रहती, तृप्ति में
कोई कमी नहीं होतीl जहां तृप्ति में कमीं आती है वहां दुःख
होता है ऐसी वेदान्त की सीधी और सरल विचार पद्धति हैl
हम एक उदाहरण लेते हैl
मानिए कि इकलौता बेटा चला गयाl होना तो नहीं चाहिये लेकिन हो
गयाl इस घटना को साक्षित्व से अगर देखा जाए तो बेटे के प्रति
मेरा ममत्व समाप्त हो जाना चाहिएl उसके प्रति मेरी जो आसक्ति
है वह समाप्त हो जानी चाहिएl ‘चला गया’ शब्दों का अर्थ अनेक
प्रकार से निकल सकता हैl घर छोड़ कर यदि जाए तो भी चला गया,
अपना दूसरा घर बसा ले तब भी चला गया, लड़ाई झगड़ा
कर निकल जाए फिर भी चला गया और वास्तव में गुजर जाए तब भी चला गयाl इतने प्रकार से चला गया शब्दों का अर्थ
निकल सकता हैl किसी भी अर्थ में समझो यदि चला गया हो तो यह
घटना जब घटित हुई तब उसे मैंने साक्षी के रूप में देखाl यदि
सक्रीय साक्षी के रूप में देखा हो तो सक्रियता हुई अतः उसके साथ साथ दुःख भी आ ही
गयाl लेकिन यहाँ निष्क्रिय साक्षी, जो मैं हूँ, होने के कारण
और “तत्वमसि – वह तुम हो“ इस महावाक्य के अनुसार मैं आत्मा हूँl इस यथार्थ श्रवण से मुझ पर जो भ्रान्ति का मैल था उसे धो डालने की
व्यवस्था अनुग्रह में हैl यदि अनुग्रह में यह व्यवस्था न हो
तो वह सिर्फ एक औपचारिक विधि बन जाता हैl अनुग्रह सिर्फ एक
विधि बनकर नहीं रहना चाहियेl उस अनुग्रह का दोनों पक्षों की
ओर से अर्थात अनुग्रह देनेवाले और लेने वाले की ओर से पृष्ठपोषण होना चाहिये, उसे
बढ़ावा मिलना चाहियेl ऐसा होने पर ही उस अनुग्रह का कोई मूल्य
होगाl स्वामी रामदास की सन्दर्भ ओवी “जिस क्षण अनुग्रह लिया
उसी क्षण मोक्ष प्राप्त हुआ” का अर्थ यही है कि अनुग्रह देनेवाला और लेनेवाला
दोनों यदि अपनी अपनी जिम्मेदारी ठीक से समझे हों तो फिर भ्रम से मुक्त होने में
कोई विशेष समय नहीं लगेगाl उसी क्षण मुक्ति होने की व्यवस्था
हो गई ऐसा समझने में कोई हर्ज नहींl अतः “तत्वमसि” यह
महावाक्य अनुग्रह का एक भाग बन जाता हैl इस बोध के कारण
जगतसत्यत्व भ्रान्ति और देह तादात्म्यता से हमें छुटकारा मिलता है और कर्तृत्व
भोक्तृत्व भ्रान्ति से भी छुटकारा होता हैl यदि मैं कर्ता नहीं
हूँ तो कर्ता कौन है? इसका उत्तर है कि कर्ता जीव हैl आत्मा
कर्ता नहीं हैl हम सब में जो जीव नामक तत्व है, वही कर्ता हैl लेकिन मैं जीव नहीं हूँl मैं जीव न होकर, आत्मा हूँ
अतः हर घटना का निष्क्रिय साक्षी हूँl जो कुछ भी घटित हो रहा
है वह जीव द्वारा किया जा रहा है और वह प्रारब्ध के
वशीभूत हो रहा हैl
लेकिन वह चाहे जिस तरह से घटित हो रहा है, ऐसी
कल्पना करना ठीक नहीं है, बल्कि उसे नियमों और वर्जनाओं की मर्यादा हैl कुछ भी और कैसे भी यदि घटित हो तो वह
प्रारब्ध वश हुआ होगा ऐसा समझने में कोई आपत्ति नहीं हैl
परन्तु प्रमुख बात है वह अलिप्तता -कि उसका मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं हैl ऐसी अलिप्तता का अभ्यास निरंतर करते रहना ही साधना हैl इस साधना की सामग्री हमें महावाक्य या पर्याय से अनुग्रह द्वारा प्राप्त
होती हैl इसलिए तीनों भ्रमों से मुक्ति या निवृत्ति अनुग्रह
का एक फल होना चाहियेl एक और बहुत अच्छी बारीकी आपके सामने
रखना चाहता हूँl ज्ञानेश्वर महाराज की सुन्दर ओवी हैl इस ओवी का महावाक्य के साथ सम्बन्ध है, अनुग्रह से
संबंध है :-
विषयव्याळें मिठी l दिधलिया नुठी ताठी l ते तुझिये
कृपादृष्टी l निर्विष होय ll ( ज्ञानेश्वरी १२ – २ )
इस ओवी का अर्थ है :- विषय रूपी सर्प की पकड़-जो और अधिक मजबूत होती जाती है,
से छूटना संभव नहीं हैl
ऐसी वही मजबूत पकड़ श्री गुरु की कृपादृष्टि से निर्विष हो जाती हैl
निर्विष हो जाने का अर्थ है विषयों का विषत्व हट जाना, दूर हो जानाl उदाहरण के तौर पर हम
“रूप” विषय लेते हैंl
रूप आँखों का विषय हैl विषय सर्प की पकड़ का अर्थ है कि जिस
क्षण मैं आँखें खोलता हूँ उसी क्षण मुझे रूप नजर आता हैl रूप
शब्द का अर्थ है आकारl मैं हंसी मजाक में कहता हूँ कि गैंडा
और अभिनेत्री दोनों एक से ही रूपवान हैंl परमार्थ की
दृष्टि से अभिनेत्री और गैंडा दोनों को रूप हैl अतः रुपत्व की दृष्टि से दोनों एक से ही हैंl रूप शब्द का अर्थ स्पष्ट होने की दृष्टि से ही यह जोड़ी जानबूझ कर बतौर
उदाहरण ली हैl दोनों को
आकार हैl इस रूप का सौन्दर्य से कोई सम्बन्ध नहीं हैl रूप का मतलब आकारl विशिष्ट वस्तु की जो आकृति या
रूप है वह दिखाई देता ही है, लेकिन जो रूप दिखाई देता है वह सत्यता के साथ दिखता
है यही वास्तविक बाधा या कठिनाई हैl रूप या आकार दिखाना
आँखों का धर्म है, लेकिन उस रूप में, आकार में सत्यत्व देखना ही विष हैl इतना यदि ध्यान में आ जाये, तो गुरु
कृपादृष्टि से निश्चित रूप से क्या होता है यह हमें समझ में आ जाएगाl उसके बाद अनुग्रह का क्या परिणाम होता है
इसका भी ज्ञान हमें हो जायेगा, परन्तु तब तक अनुग्रह का क्या परिणाम होता है यह
बात समझ में आना बहुत ही कठिन हैl अनुग्रह दिया जाता है, अनुग्रह लिया भी जाता है और सारे
व्यवहार वैसे ही चलते रहते हैंl लेकिन फिर होना क्या चाहिये?
आँखों का काम ही है रूप या आकार देखना अतः रूप या आकार देखने में कोई दोष नहींl वे अपना काम करेंगी हीl परन्तु आखों ने जो रूप देखा
वह सत्य है ऐसा लगना ही उसका विष हैl गुरु की कृपादृष्टि से
यह विष दूर हो जाता हैl आँखों पर यह बंधन है, यह अनिवार्यता
है कि उनके खुलते ही रूप दिखे, नजर आयेl यही उस विषय सर्प की
पकड़ हैl यह पकड़ और जकड इतनी मजबूत है कि जिस क्षण आँख खुलती
है उसी क्षण रूप या आकार दिखना ही चाहियेl लेकिन गुरु
कृपादृष्टि हो गई हो तो आँख खुलने पर मुझे विषय नजर आने पर भी उसमें रहनेवाला
सत्यत्व का विष निकल जाएगा, दूर हो जायेगाl दिखने वाला
पदार्थ पहले विषाक्त था लेकिन अब विषहीन हो गयाl पदार्थ वही
नजर आता हैl आँखें भी अपना काम करेंगीl
मन उस पदार्थ का आकार ग्रहण करेगाl उस पदार्थ का नाम देखने
वाले के ध्यान में आ जायेगाl उस पदार्थ का क्या उपयोग है यह
भी उसे ज्ञात होगाl वह उसका है या नहीं है यह भी पता चलेगाl उसकी अच्छाई या बुराई का भी चिंतन होगाl लेकिन इस
सारे चिंतन की आपाधापी में उसका विषत्व नहीं होगाl गुरु
कृपादृष्टि यदि प्राप्त हो जाये तो उसका सत्यत्व रूपी विष दूर हो जाता हैl सत्यत्व जाते ही तत्वतः वह विषय बचेगा ही नहीं, निःशेष हो जाएगाl
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