Tuesday, May 10, 2016

अनुग्रह - भाग १

(दि. ३.७.९३ और दि. ४.७.९३ को श्रीगुरुपुर्णिमा के अवसर पर, गुरुवर्य परमपूज्य डॉक्टर श्री श्रीकृष्ण द. देशमुख, निवासी ग्राम मुरगुड जिला कोल्हापुर, महाराष्ट्र, द्वारा दिये गये प्रवचनों का शब्दांकन l)

भाईयों और बहनों,

आज मुझे आप लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिये अनुग्रह विषय दिया गया है और उस सन्दर्भ में समर्थ श्री रामदास स्वामीजी की एक ओवी  (मराठी छंद का एक प्रकार), हमारे सामने प्रस्तुत की  गई हैl आइये हम लोग उसी के आधार से अनुग्रह विषय का विचार करें l

वह ओवी(पद) है :

जेचि क्षणी अनुग्रह केला l   तेचि क्षणी मोक्ष झाला l
बंधन काही आत्मयाला l बोलों चि नये ll   (दासबोध ८-७-५९)

अर्थात जिस क्षण अनुग्रह किया गया, उसी क्षण मोक्ष प्राप्त हुआl आत्मा को किसी भी बंधन के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

अर्थ एकदम सरल है जो कि सामान्य अर्थ हैl  इस ओवी के अनुसार दो बातों का विचार करना चाहिये

. क्या सचमुच ऐसा होता है कि अनुग्रह मिलते ही उसी क्षण शिष्य मुक्त हो जाता है?

. या इस बारे में कुछ अधिक विचार करना होगा।

ये दोनों ही विचार सही हैं।

जिस क्षण अनुग्रह मिला उसी क्षण मुक्त होने की संभावना तो रहती है, अर्थात अनुग्रह प्राप्त होने के क्षण ही मुक्ति नहीं होती ऐसी बात नहीं है, लेकिन ऐसा तुरंत मुक्ति पाने वाला शिष्य बिरला ही होता है। संत ज्ञानेश्वर महाराज की एक ओवी है :-

काना वचना चिये भेटी l सारिसा चि पै किरीटी  l
वस्तु होउनी उठी l  कवणु एक तो ।। (ज्ञानेश्वरी- १८-९८९)

अर्थात कान और वचन की भेंट होते ही शिष्य आत्मा नामक वस्तु का अनुभव प्राप्त कर लेता है, लेकिन ऐसा कोई एक बिरला ही व्यक्ति होता हैl

श्रीगुरु के मुख से निकले वचन और शिष्य के कान - इन दोनों की भेंट होते ही शिष्य आत्मरूप हो उठता है, अर्थात् आत्मा नामक वस्तु का अनुभव लेकर शिष्य मुक्ति के लिए एकदम तैयार हो जाता है लेकिन ऐसा कोई अपवाद के रूप में ही होता हैl साधारणतया तत्काल मुक्ति मिलने का नियम एकमुश्त सभी पर लागू नहीं होताl ऐसा हम मझें कि तत्काल मुक्त होनेवालों में हम भी शामिल हैंl परमार्थ में कुछ बातों का हम अपनी सुविधा के अनुसार उपयोग कर लेते हैंl  ज्ञानेश्वर महाराज का ही कहना है, स्तु होउनी उठी l कव एकु तो l”, अर्थात कोई एक ही व्यक्ति मुक्ति प्राप्त करता हैl हमें लगता है कि चूंकि मेरे लिए भी कान और वचन की भेंट हो चुकी है और अगर ऐसा मुक्त होने वाला कोई हो सकता है तो वह मैं क्यों नहीं हो सकता l हम इस तरह के विचार करते हैं और फिर हमें लगता है की अब हमारा कोई कर्तव्य शेष नहीं है, हमारा काम हो चुका हैl लेकिन ऐसी समझ हमें परेशानी में डाल सकती हैl इसलिए यह भरोसा रखें कि अपवाद स्वरुप मुक्ति प्राप्त करने वाला वह “मैं” नहीं हूँ l इस ओवी के माध्यम से संत ज्ञानेश्वर महाराज का सिर्फ इतना ही कहना है कि कोई एक-आध अधिकारी साधक ही तत्काल मुक्त हो सकता हैl

राजा जनक के बारे में एक कथा हैl एक बार राजा जनक अपने महल की छत पर बैठे थे, चांदनी फैली हुई थीl उस चान्दनी में गन्धर्व संवाद कर रहे थेl उनमें आत्मज्ञान की बातें या आत्मचर्चा हो रही थीl वह आत्मचर्चा राजा जनक ने सुनी और आत्मचर्चा के उतने श्रवण से ही उन्हें तत्काल ज्ञान हो गयाl राजा जनक को तत्काल आत्मज्ञान हुआ क्योंकि वे उन ‘कोई एक’ बिरले लोगों में से थे जो कि अधिकारी साधक होते हैंl उन गन्धर्वों को भी ऐसा अंदेशा नहीं था कि उनकी बातें राजा जनक या कोई सुन रहा होगा l लेकिन उनके संवाद से राजा जनक को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ जो कि एक अपवादात्मक बात हैl सर्वसामान्यरूप से स्वामी समर्थ रामदासजी के वचन अनुग्रह प्राप्त होते ही मोक्ष मिलता है“ से क्या अभिप्रेत है? आइये एक उदाहरण देखें l जब कोई व्यक्ति हमें कोई ख़ास कम करने के लिए कहता है और वह काम हम निश्चित तौर पर करने में समर्थ रहते हैं तो हम उसे कहते हैं कि “बस काम हुआ ही समझो, अब फिर से उस बारे में सोचिये भी मतl“, हमारा यह कहने का लहजा ही स्वामी समर्थ जी के कथन में हैl समझो कि श्रीगुरु से अनुग्रह प्राप्त होने पर अधिकारी साधक तत्काल मोक्ष प्राप्त करेगा ही - ऐसा श्री स्वामी समर्थ रामदासजी के कथन का भाव हैl अनुग्रह क्या होता है?, वह कौन और किसे देता है? यह सभी विचार हम आगे करने वाले हैंl लेकिन इसका तात्पर्य यही है कि अनुग्रह देनेवाले ने और अनुग्रह लेनेवाले ने यदि एक दूसरे को अच्छी तरह जाँच परख लिया हो तो अनुग्रह होते ही अनुग्रह लेनेवाला मुक्त हुआ समझने में शंका को कोई स्थान नहीं हैl यहाँ जिस क्षण अनुग्रह मिला उसी क्षण मुक्त हो जाने का शाब्दिक अर्थ न लेते हुए लाक्षणिक अर्थ लेना होगाl ओवी की अगली पंक्ति में कहा गया है कि जिसकी प्राप्ति के लिए बोध किया गया, वह आत्मा बंधन में है ऐसा नहीं मानना चाहिएl इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा कभी भी बंधन में नहीं होतीl अनुग्रह कौन और किसे दे यह समझने के पहले आइये हम अनुग्रह का अर्थ स्पष्टता से समझेंl

अनुग्रह शब्द का एक अर्थ है कृपाl

अनुग्रह का दूसरा अर्थ है स्वीकार करनाl

अनुग्रह का तीसरा अर्थ है हाथ थामनाl

        तीन अर्थ हमारे सम्मुख हैंl अनुग्रह शब्द में ग्रह धातु है, जिसका अर्थ है ग्रहण करना अर्थात स्वीकार करनाl जिसे स्वीकार करना है, उसे किसलिए स्वीकार करना है? उसे आत्मबोध के लिए स्वीकार करना है, उसका हाथ थामना हैl हाथ थामना अर्थात उसे अच्छी तरह स्वीकार करना, उसे अपने साथ रखना है और उसका कार्य पूरा होने तक उससे जो साधना करवाना चाहिए वह उससे करवा लेना हैl

ध्यात्म साधना में श्रीगुरु के अनुग्रह की कृपा में एक विशिष्टता हैl व्यवहार में जब कोई किसी पर कृपा करता है तो कृपा करने वाला, वह कृपा कर रहा है या उसने कृपा की है इस बात का अहसास रखता हैl उसे अपनी इस कृति का अहंकार भी होता हैl यह बात उसके ध्यान में भलीभांति रहती हैl अध्यात्मशास्त्र में, परमार्थ में, कृपा करनेवाले को ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि उसने कृपा की हैl लेकिन जिस पर कृपा की गई हो उसे यह लगता है कि उस पर बहुत बड़ी कृपा हुई हैl कृपा करनेवाला, “मैं कुछ करता हूँ“ इस भूमिका से बहुत परे ही रहता है  उसकी यह “अकर्ता“ रहने की भूमिका हमारे ध्यान में जल्दी से नहीं आती और समझ में भी नहीं आतीl अतः व्यावहारिक स्तर पर “कृपा करना” शब्दों का प्रयोग जिस अर्थ में किया जाता है, उसी अर्थ में उसको पारमार्थिक स्तर पर उपयोग में लाना ठीक नहीं होगाl  कृपा में दया का समावेश होता है  व्यावहारिक रूप में “दया” शब्द हमें अच्छा नहीं लगताl “मुझ पर दया करो“ कहना हमें पसंद नहीं आताl लेकिन परमार्थ में दया शब्द का अर्थ बड़ा उच् है, बड़े ऊँचे स्तर का हैl उदाहरण के रूप में हम जो दया भाव किसी गंदी बस्ती या झोंपड़ी में रहनेवाले लोगों के प्रति रखते हैं और उनके लिए अनुकम्पा रखते हैं, ऐसी दया का स्वरूप और परमार्थ में रहने वाली दया के स्वरुप में बहुत अंतर हैl परमार्थ में जिसके लिए दयाभाव लगता है या जिसपर दया की जाती है वह वस्तुतः ब्रह्मस्वरूप है लेकिन वह अज्ञानवश, अविद्या के कारण गलतफहमी में अपने आप को, ”मैं जीव हूँ “, “मैं देह हूं“, “मैं कर्ता हूँ“, “मैं भोक्ता हूँ“ ऐसा समझता हैl उसकी यह गलतफहमी दूर करना ही उस पर दया करना हैl उसका जो potential है , उसकी जो क्षमता है उस पूरी क्षमता का उसे अहसास कराना, अनुभूति कराना हैl उस क्षमता का उपयोग कर उसे अपने मूलस्वरुप तक पहुँचना हैl पर यह सब किस तरह किया जाय यह उसे समझता नहीं है, अतः उसे समझाना हैl “जिस तरह मैं ब्रह्म हूँ उसी तरह तुम भी मूलरूप में ब्रह्म ही हो“ यह उसे स्वीकार्य होने तक समझाना हैl जिस तरह श्रीगुरु “मैं“ शब्द का अर्थ ऐसा समझते हैं कि जिस दर्जे का मैं हू, जिस योग्यता का मैं हूँ अर्थात जिस प्रकार मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ, उसी तरह सामने उपस्थित शिष्य भी ब्रह्मरूप हैl प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्मरूप ही हैl लेकिन यह बात उसकी समझ में नहीं आतीl उस पर हुए अनंत जन्मों के गलत संस्कारों के कारण ‘मैं ब्रह्म हूँ“ यह बात वह नही जानताl सिर्फ इतना ही समझा देने का काम श्री गुरु को करना है l परमार्थ में उनकी अनुकम्पा का स्वरुप यही हैl अतः परमार्थ के क्षेत्र में व्यावहारिक दया और अनुकम्पा जैसे अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाताl हम पर कोई दया करे या हम किसी की  अनुकम्पा का पात्र बनें, यह बात व्यवहार में हमें बिलकुल पसंद नहीं होतीl अगर हम गरीब हैं और हमें बस से कहीं जाना हो और कोई हमें कार में लिफ्ट दे तो हमें अच्छा नहीं लगताl स्वाभिमानी व्यक्ति कहता है “मैं अपने हिसाब से जाउंगा, धन्यवादl”, तो वह व्यावहारिक दृष्टि से ठीक बात हैl लेकिन परमार्थ क्षेत्र में हम श्रीगुरु की दया के पात्र हो पायें तो इस बात से साधक शिष्यों को बड़ी ख़ुशी होती है, वे धन्य हो जाते हैंl श्री समर्थ जी के जिस ओवी का विचार हम कर रहे हैं उसमे आये हुए अनुग्रह शब्द में ऐसी ही दया  और अनुकम्पा का पूर्णतया समावेश होता हैl

            कोई व्यक्ति यदि  श्रीगुरु से कहता है “मुझ पर आपका अनुग्रह हो, अर्थात आप मुझ पर दया करें, मुझे कुछ समझायेl“ तो इसे “अनुग्रह” मांगना कहते हैं l लेकिन अनुग्रह देना यह बात कुछ अलग है l अनुग्रह दो प्रकार का होता हैl एक सामान्य और दूसरा विशेषl जब किसी से आप अच्छी और सुन्दर बातें सुनें तब उसने आप पर अनुग्रह किया हैl यह सामान्य अनुग्रह हैl अनुग्रह केवल परमार्थ के क्षेत्र में ही किया जाता हो ऐसी बात नहीं हैl अज्ञान के अनेक क्षेत्र हैं, उन क्षेत्रों में एकाध ज्ञानी व्यक्ति जब आपको समझ में आये ऐसी पद्धति से अच्छी बातें बताये तब वह आप पर अनुग्रह करता हैl यह अनुग्रह शब्द का सामान्य आशय हैl लेकिन “अनुग्रह देना“ इस शब्द प्रयोग में कुछ अलग और विशेष अर्थ हैl सामान्य अर्थ में यह शब्द प्रयोग क्वचित ही किया जाता हैl परमार्थ के क्षेत्र में ही वह विशेष और अलग अर्थ में प्रयोग में लाया जाता हैl उस अर्थ पर अब हम ध्यान देंगेl

 क्रमशः...

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