Friday, July 1, 2016

संप्रदाय - ३

समुद्र घनगंभीर आवाज करता है परन्तु उसका पानी खारा होता हैl वह उसमें कूद जानेवाले को डुबो देता हैl संत भी समुद्र की भांति गंभीर(गहन) उपदेश देते हैंl संत विश्वनिर्माण की, मानव जीवन की और परमेश्वर की गहनता समझाकर बतलाते हैंl उनका अंतःकरण अमृत से लबालब भरा रहता हैl उनकी शरण में जाने से वे भवसागर से तार देते हैंl

ऐसे संतों के उपदेश की परवाह न करते हुए ईश्वर की कितनी भी पूजा की जाय वह निष्फल ही होती है और पूजा के लिए अभिमंत्रित पुष्प ईश्वर को अर्पित करने से वे उस पर पत्थर बरसाने के समान  ही लगते हैंl सूखी भावहीन पूजा की अपेक्षा संतों की आज्ञा के अनुसार बर्ताव कर उपासना करना कितना महत्वपूर्ण है, यह उपरोक्त बात से ध्यान में आयेगाl ‘परनारी माता समानइस संत वचन को न मानते हुए कितनी भी भव्य पूजा की जाय वह निरुपयोगी ही होगीl

ये संत मोक्षरूपी संपत्ति के कारण अत्यंत धनवान हैंl वे अहं ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ब्रह्म हूँ ऐसा अनुभव करते हैंl परन्तु सामान्य व्यक्ति केवल मैं जीव हूँऐसा मानकर अकारण दरिद्री बना रहता हैl संत सामान्य व्यक्ति को ऐसी दरिद्रता का त्याग करने में मदद कर उसे अपनी ही तरह धनवान बना देते हैंl संतों का संप्रदाय में इतना अधिक महत्त्व होने का कारण स्पष्ट करते हुए संत ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं :-
श्रुति स्मृति चे अर्थ l आपण होवोनि मूर्त l अनुष्ठोनि जग देत l वडिल जे ll
श्रुति अर्थात उपनिषद् और स्मृति का अर्थ है धर्मग्रन्थl इनका तत्त्वज्ञान, आचार इत्यादि भलीभांति समझ कर संत वैसा ही आचरण करके दिखलाते हैंl वे जगत को समझाकर बतलाते हैं और जगत भी वैसा ही आचरण करे इस हेतु स्वयं अपना आदर्श प्रस्तुत करते हैंl  वे केवल बड़ी बड़ी बातें बनाने वाले या केवल जटा-जूट और डाढी बढ़ाकर और कौपीन पहन कर दिखावा करने वाले नहीं होतेl श्री समर्थ रामदास स्वामी इस आदर्श का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं :
जो जगा मध्ये वागे l जना वेगळी गोष्ट सांगे l जयाचे अंतरी ज्ञान जागे l तोचि साधू ll
अर्थात वह जो लोगों के बीच विचरण करता है परन्तु उनके समान आचरण नहीं करता, जो आत्मज्ञानी है, वही व्यक्ति साधू हैl 

सामान्य लोग सुख-दुःख, जय-पराजय, मान-अपमान, लाभ-हानि इत्यादि के फेर में अपना जीवन जीते हैंl ऐसा जीवन वास्तविक जीवन नहीं हैl लोगों को यह बात संत हरतरह से जबतक वह उन्हें स्वीकार्य हो जाए, तबतक समझाते हैंl इसके लिए वे साम, दाम, दंड और भेद के सभी व्यावहारिक उपाय भी अपनाते हैंl

सफल जीवन का गुरुमंत्र बतलाते हुए संत ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं :-
तैसे आपुलेनि विहिता l उपायो असे न विसंबिता l ऐसा कीजे की जगन्नाथा l आभारु पड़े ll
अर्थात : तुम अपने विहित कर्म इस प्रकार करो और इतनी निरंतरता से करो कि उसका ईश्वर को भी अपने  सिर पर बोझ लगेl

यहाँ थोड़ा भी जिंदगी से भागने का विचार नहीं हैl तुकाराम महाराज कहते हैं कि ममत्व के कारण जिनमें तुम्हारा मन उलझा हुआ है, वे सब तुम्हें तुम्हारे अंत समय में छोड़कर चले जाने वाले हैंl

इसतरह संत लोगों को उनके वास्तविक हित की बातें उनके बीच रहकर समझाते हैंl लेकिन इसके कारण उनकी अपनी मुक्तावस्था में कोई बिगाड़ या खराबी नहीं होतीl बहुत से उलटफेर करने के बावजूद उनकी शान्ति ज़रा भी भंग नहीं होतीl संतों के ऐसे अच्छे कार्य के कारण मूलरूप से ईश्वर के नाम से शुरू हुए संप्रदाय आजकल संतों के नाम से जाने जाते हैंl महाराष्ट्र में भागवत संप्रदाय संत ज्ञानेश्वर संत तुकाराम के नाम से चलता हैl ‘श्रीराम संप्रदायतुलसीदासजी, समर्थ रामदासजी के नाम से प्रसिद्ध हैl महाराष्ट्र में नाथ संप्रदाय स्वामी स्वरूपानंद के नाम से पहचाना जाता हैl

संप्रदाय एक निश्चित रूपरेखा के द्वारा नियोजित स्पष्ट मार्ग है जिसे एकबार स्वीकार करने के पश्चात अनिश्चितता, उलझनें और संभ्रम समाप्त हो जाते हैंl समय, प्रयत्न और आयु  व्यर्थ नहीं जातीl संप्रदाय कोई पिंजरा नहीं है और उसे वैसा होना भी नहीं चाहिएl साधक की अवस्था उस पिंजरे में कैद प्राणी की तरह नहीं होना चाहिएl साधक को संप्रदाय का अनावश्यक अभिमान न हो परन्तु उस पर पूरा विशवास जरूर होना चाहिएl संप्रदाय की लीक को विवेकपूर्वक सम्हालना चाहिएl संप्रदाय के नियम, व्रत, साधना आदि बातें सर्वसाधारण लोगों का विचार कर निश्चित की जाती हैंl उनके भी निश्चित हेतु होते हैंl किसी की अपनी मर्जी या सनक के अनुसार वे बातें संप्रदाय में प्रचलित और  निश्चित नहीं होतींl सबको उनका आदर करना चाहिएl ऐसा नहीं है कि कुछ साधना होने के पश्चात या पहले की तैयारी के कारण एक निश्चित उंचाई तक पहुंचे हुए साधकों को सभी नियम उपयोगी होते हैंl परन्तु फिर भी उन्हें भी वे सभी बातें सम्हालना चाहिएl कम से कम उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए कि ये बातें जरुरी नहीं हैंl जहां संप्रदाय के सभी अनुयायी आये हुए हों वहां सभी को समस्त नियमों का पालना करना चाहिएl संत ज्ञानेश्वर ने तो वैसी आज्ञा ही दी है:-
तेथ सत् क्रिया चि लावावी l  ती चि एक प्रतिष्ठावी l निश्कर्मी विशेषे दावावी l आचरोनी ll
अर्थात : वहाँ सभी को सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त करना चाहिएl सत्कर्मों का  आदर करना चाहिएl निष्काम ज्ञानी पुरुषों को स्वयं सत्कर्म कर उनके आचरण का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिएl

जो श्रेष्ठ व्यक्ति मुक्त हैं, उन्हें समाज के सामने अच्छे कर्मों का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिएl वे आदर्श हमेशा कायम रहें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिएl कर्म के बंधन से मुक्त लोगों की यह विशेष जिम्मेदारी हैl जो बात अच्छे कर्मों के बारे में है, वही बात संप्रदाय के बारे में भी समझना चाहिएl

एक बार संप्रदाय निश्चित हो जाने के पश्चात देवता, तीर्थस्थान, ग्रन्थ, मन्त्र, व्रत और साधना जैसी सभी बातें निश्चित हो जाती हैंl ये होना अत्यंत आवश्यक हैl हम वारकरी संप्रदाय का उदाहरण लेंl उस संप्रदाय के श्री विठ्ठदेवता हैं, पंढरपुर तीर्थस्थान है, ज्ञानेश्वरी - तुकाराम गाथा एकनाथी भागवत ग्रन्थ हैं, ‘जय जय राम कृष्ण हरी मन्त्र है, नियम से वारी करना (तीर्थक्षेत्र की यात्रा) और एकादशी का उपवास व्रत है और नामजप साधना हैl समूहों की भिन्नता के अनुसार इनमें थोड़ा-बहुत अंतर पाया जाता हैl संत नामदेव के अभंगों (उपदेशात्मक आध्यात्मिक काव्य रचना) में इन सभी बातों का विचार किया गया हैl

समर्थ रामदास स्वामी ने अपने स्वरुप संप्रदायके सभी लक्षण स्पष्ट शब्दों में बतलाये हैंl स्वामी स्वरूपानंद ने अपनी स्वामी म्हणे माझा नाथ संप्रदाय अर्थात स्वामी कहते हैं कि मेरा नाथ संप्रदाय है नामक रचना में अपने संप्रदाय का वर्णन किया हैl

देवता निश्चित हो जाने से साधक को उसके द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली सगुण उपासना हेतु हमेशा के लिए आधार मिल जाता हैl मूर्ति, फोटो आदि के आधार से पूजा करना संभव हो जाता हैl ईश्वर के रूप पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता हैl स्वरुप को सदैव स्मरण में रखना, स्मृति में रखना आसान हो जाता हैl पूजा के कारण मन में उत्साह का संचार होता हैl कृष्ण-जन्माष्टमी, रामनवमी, श्रीदत्त जयंति, महाशिवरात्रि आदि पर्व काल के उत्सवों के कारण कुम्हलाया मन तरोताजा हो जाता हैl संतों की पुण्यतिथि मनाने से उनके चरित्र, उनकी साधना और उपदेशों का चिंतन होता रहता हैl

एक ही स्वरुप की एक ही मूर्ति की उपासना करने से सगुण साक्षात्कार होने में सहायता मिलती हैl जो भाव हो वही देवता, जैसे भाव वैसे देवता, जितना भाव उतना ही देवता का दर्शन ये बातें ध्यान में लेना और रखना अत्यंत आवश्यक हैl संत ज्ञानेश्वर  कहते हैं : भाव बळे आकळे l येऱ्हवीं नाकळे ll
अर्थात मन में अगर प्रबल भावना हो तभी ईश्वर का आकलन हो सकता है वरना कुछ भी जानना असंभव हैl 
सगुण साक्षात्कार के बाद सारी शंकाएं मिट जाती हैंl वह साक्षात्कार साधक के अंतःकरण में हमेशा केलिए व्याप्त रहता हैl संत तुकाराम कहते हैं : आता कोठे धावे मन l तुझे चरण देखलिया ll
अर्थात एक बार आपके चरणों के दर्शन हो जाने के बाद अब मेरा मन भला कैसे और कहीं भाग सकता है?

देवता के स्वरुप और उनकी मूर्ति का संबंध हमेशा के लिए होता हैl सगुण साक्षात्कार होने तक मूर्ति के दर्शन को ही साक्षात्कार मानना पड़ता हैl वे देवता अपनी शक्ति का अनुभव देकर जहां प्रकट होते हैं उस स्थान को क्षेत्रकहते हैंl क्षेत्र के विषय में लाखों लोगों के मन में भावनाएं निर्मित हो जाती हैंl आगे परंपरा से वे भावनाएं स्थिरता पाती हैं और उस ख़ास दिन या काल में उस स्थान पर दर्शन के लिए जाने की परिपाटी बन जाती है और यात्रा की शुरुआत हो जाती हैl यह नियम कि ऐसी यात्रा करना है, व्रत कहलाता हैl तमाम दिक्कतें, तकलीफें, खर्च आदि सहकर यात्रा करने से कायिक तप हो जाता हैl
क्रमशः....
 

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