अब साधना के बारे में विचार करेंगेl तीर्थयात्रा, देवता, ग्रन्थ
इत्यादि बातें वास्तविक साधना में मदद करती हैंl इन साधनाओं
में संप्रदाय के अनुरूप काफी अंतर हो जाता हैl फिर भी
स्थूलरूप से नाम, ध्यान, चिंतन और
पृथक्करण के रूप में चार वास्तविक साधन बताये जा सकते हैंl सभी
साधनाओं का इन्हीं में समावेश होगाl
सामान्यतः निम्न चार साधना भेद बतलाये जा सकते हैं :-
१. वारकरी संप्रदाय का ज्ञान
सहित नाम
२. नाथ संप्रदाय का ध्यान
३. वेदान्त संप्रदाय का
अद्वैत चिंतन और
४. रमण महर्षि का पृथक्करण
फिर भी यह बात जानकारों के ध्यान में आये बगैर नहीं रह सकती कि इन सब में एक
सुसूत्रता और सुसंवाद हैl सदाचार, उपासना,
अंतःकरण की एकाग्रता और आत्मानुभव ये प्रमुख बातें सभी में समान रूप
से पाई जाती हैंl अद्वैत संप्रदाय में तत्त्वज्ञान को,
द्वैत संप्रदाय में उपासना को, और इन दोनों से
विशेष संबंध न रहने वाले संप्रदायों में (जो बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह उग आते
हैं) चमत्कारों के अनुभव का महत्त्व होता हैl तत्त्वज्ञान का
उपयोग अपने साधनों का स्पष्टीकरण और वास्तविक साधना के लिए मार्गदर्शन इस तरह
दोहरे रूप में होता हैl
अद्वैती और द्वैती संप्रदायों में भी अनेक उपभेद हैंl उदाहरण के रूप में : भामतिकार कहते हैं कि मन इन्द्रिय हैl
विवरणकार मन को इन्द्रिय नहीं मानतेl भामतिकार
ऐसा समझते हैं कि केवल यथार्थ श्रवण से मोक्ष प्राप्त होता है, वहीँ विवरणकार कहते हैं कि गुरु से विधिपूर्वक उपदेश लिए बिना ज्ञान नहीं
होताl दोनों का मुख्य उद्देश एक ही होते हुए उनमें ऐसे
अत्यंत महत्वपूर्ण और सूक्ष्म अंतर हैंl ये बातें ध्यान में
रखकर ही किसी सांप्रदायिक व्यक्ति को दूसरे संप्रदाय के तत्त्वज्ञान का श्रवण करना
चाहिएl वास्तविक साधना से संबंधित भाग को छोड़कर सदाचार और
उपासना जैसा अन्य भाग स्वीकार करना चाहिएl इसमें ज़रा भी
भ्रमित न होवेंl ये भेद क्यों निर्मित होते है? प्रत्येक मनुष्य अलग होता हैl उसकी प्रकृति, स्वभाव और उसके साधन भिन्न होते हैंl इस कारण भेद
होना अपरिहार्य हैl इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक भेद को
स्वयं से संबंधित और असंबंधित रूप में विभाजित करना चाहिएl
असंबंधित भेद की पूर्णतया अनदेखी करें और केवल संबंधित भेद का ही विचार करेंl उसीतरह दूसरे के भेदों की ओर भी उदार दृष्टि रखेंl
सामान्य मनुष्य किसी संप्रदाय की व्यावहारिक धनाढ्यता से मोहित हो जाता हैl मठ की आकर्षक रचना, विशाल भवनों के समूह,
बाग़-बगीचे, साधकों के लिए मठ का सुसज्जित
निवास, रसोईघर और भोजनकक्ष, भव्य
सभाभवन, पहाड़ों के शीतल स्थान, ग्रन्थ
संग्रहालय, बड़ी ग्रन्थ संपदा, अनुयायियों
की बिशाल संख्या, विदेशी शिष्यों की बड़ी संख्या, संसार के अनेक देशों में शाखाओं का जाल, प्रभावशाली
वक्ताओं का समूह, प्रभावशाली प्रचार माध्यमों की व्यवस्था,
सरकारी सहयोग, समाज के प्रतिष्ठित धनाढ्यों की
मान्यता इत्यादि बातों से वह विशेष रूप से अभिभूत हो जाता हैl ये सब बातें होने में कोई बुराई नहीं है और इनसे किसी को उज्र भी नहीं
होना चाहिए बल्कि ये नए युग की आवश्यकतायें हैंl परन्तु इन
सभी दर्शनीय और आकर्षक बातों में उनसे भी बहुत अधिक महत्वपूर्ण रहनेवाली उपासना,
सदाचार, तत्त्वचिन्तन, साधना
और मोक्ष इत्यादि बातों को थोड़ा भी नजरअंदाज नहीं होने देना चाहिएl
संप्रदाय के व्यावहारिक वैभव को सम्हाले रखने के लिए और उसे वृद्धिंगत करने की
धुन में संप्रदाय के मुख्य हेतु की अनदेखी होना संभव हैl इसके कारण संप्रदाय में आर्थिक गतिविधियों को आवश्यकता से
अधिक महत्त्व मिलता है, पवित्रता भंग हो जाती है और सत्ता
नामक राक्षस जन्म लेकर संप्रदाय को गुलाम बना डालता हैl आर्थिक
हित-संबंधों की रक्षा करने के लिए अनेक समझौते करने पड़ते हैंl धनाढ्य समाजकंटकों का संप्रदाय में प्रवेश होता है क्योंकि वे भी अमीरी के
साथ प्रतिष्ठा की खोज में रहते हैंl यह व्यावहारिक वैभव
जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसके लिए आवश्यक धन देनेवालों के मन में
स्वामित्व की भावना जाग्रत होती हैl वहाँ उनका अधिकार या हक़
बन जाता हैl ऐसा हक़ न रखनेवाले जब उस वैभव का लाभ उठाते हैं
तब उन धन-दाताओं को उनके प्रति शत्रुभाव और तिरस्कार लगता है या वे आश्रित लगने
लगते हैं और वे लोग उन धन-दाताओं की चापलूसी करने लगते हैंl संप्रदाय
का प्रमुख व्यक्ति बाद में केवल नाममात्र के लिए और दिखावटी प्रमुख रह जाता हैl
यह बहुत बड़ी त्रासदी हैl समर्थ रामदासस्वामीजी
ने इसे अत्यंत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है:-
तैसा गुरु नसावा
l जेणें अंतर पड़े देवा l
भीड करुनिया
गोवा l घाली बंधनाचा ll
अर्थात: जो शिष्य और ईश्वर में दूरियाँ बढाये, खुशामद का
उन पर दबाव डालकर उन्हें सांसारिक बंधनों में ही अधिक
उलझाये ऐसे व्यक्ति को कभी भी गुरु नहीं बनाना चाहिएl उससे सदा दूर रहना चाहिएl
संप्रदाय का ध्येय जीवनमुक्ति है और जिसके कारण वह संप्रदाय ध्येय दूर हो जाए, उस ध्येय से च्युत हों, ऐसी कोई भी बात
संप्रदाय के प्रमुख को सहन और स्वीकार नहीं करना चाहिएl जितनी
व्यावहारिक उलझनें बढती जाएँगी उतना ही संकोच और डर बढ़ता जाएगाl इस डर के कारण पारमार्थिक दरिद्रता होने की संभावना भी अधिक रहती हैl
धीरे-धीरे संप्रदाय के प्रमुख व्यक्तियों में सत्ता के लिए संघर्ष
शुरू होकर तनाव पैदा हो जाता है और यह तनाव अत्यंत घिनौने स्वरुप में संसार के
सामने आता हैl अदालती झगड़े बढकर संप्रदाय की प्रतिष्ठा के
चीथड़े अखबारों के पृष्ठों में टांग दिए जाते हैंl इसके अलावा
इन झगड़ों के परिणाम स्वरुप कोई तीसरा ही व्यक्ति लाभान्वित होता हैl आज के युग में ऐसे में सरकारी हस्तक्षेप की भी गुंजाइश हो जाती हैl
जिसके कारण संप्रदाय का मूल हेतु नष्ट हो जाता हैंl
क्या धर्म और परमार्थ ही पारमार्थिक संप्रदाय के मुख्य हेतु हैं? क्या समाज की सामान्य आवश्यकताओं का विचार उनमें होना चाहिए?
‘सामाजिक सेवाकार्य’ का आजकल सभी संप्रदायों
में थोड़ा-बहुत विचार होता ही हैl जिसके कारण ऐसे प्रश्न
उठाना गलत है ऐसा लगने की संभावना हैl
अन्न, वस्त्र और निवास समाज की मूलभूत
आवश्यकतायें हैंl उन्हें पूरा करने की वास्तव में किसकी
जिम्मेदारी है? शासन की या संस्थाओं की? या फिर कहें कि प्रत्येक व्यक्ति की? (संप्रदाय एक
संस्था है ऐसा मानना चाहिए) इसमें कोई शंका नहीं है कि यह जिम्मेदारी सरकार की हैl
जब समाज अपनी जिम्मेदारी समझकर अपनी आवश्यकताओं की मर्यादाओं को
नहीं बढाता, तब यह समस्या बहुत आसान होती हैl परन्तु बढती आवश्यकतायें नए अर्थशास्त्र की विशिष्टता बन गई हैंl बेशुमार जनसंख्या और मर्यादित साधन-संपत्ति पूर्णतया सामाजिक, आर्थिक और शासकीय समस्या मानना चाहिएl पारमार्थिक
संप्रदाय का मुख्य हेतु मोक्ष है यह बात खुले मन से,
स्पष्टता से और निर्भयता से कहने में क्या दिक्कत हो सकती है? संप्रदाय का प्रत्येक व्यक्ति पारमार्थिक साधना के अलावा जो भी जीवन है
उसमें समाज का विचार जरुर करे और करना भी चाहिएl लेकिन उस
कार्य के लिए किसी दूसरी उचित संस्था में शामिल होना चाहिएl संप्रदाय
में ये बातें न लाना चाहिए और न उन पर चर्चा करनी चाहिएl ईमानदारी
से अगर विचार किया जाय तो साहित्य-परिषद्, नाट्य-परिषद्,
कला परिषद्, संगीत अकादमी, क्रीडा संगठन आदि जैसी बड़ी संस्थाएं अपने-अपने सीमित क्षेत्र में ही काम
करती हैं न? वे भोजन,वस्त्र, निवास आदि की मूलभूत सामाजिक आवश्यकताओं का कोई विचार नहीं करतींl
उन संस्थाओं को प्रतिष्ठा, लोकाश्रय, राज्याश्रय, लोकप्रियता, प्रसिद्धि
आदि बातें प्रचुरता में प्राप्त होती हैंl परन्तु उन्हें कोई
भी समाजविन्मुख या परजीवी नहीं कहताl फिर भला पारमार्थिक
संप्रदाय के सर पर ही यह बोझ क्यों डाला जाता है?
पारमार्थिक संप्रदाय में व्यावहारिक बातों का प्रवेश होते ही उन बातों की ही
सहज रूप से प्रमुखता हो जाती हैl इसका कारण
यह है कि उनके संबंध में सुनना, बोलना और कुछ वास्तविक कार्य करना
पारमार्थिक साधना की अपेक्षा आसान होता है और उसमें कुछ ठोस ‘काम’ करने का संतोष मिलता हैl “समाज के उपेक्षित वर्ग को ईश्वर मानकर उसकी सेवा करना चाहिए” ऐसा कहना कितना ही विलोभनीय लगता हो फिर भी वास्तव में वैसा होता नहीं हैl
अन्न, वस्त्र और दवाओं का वितरण (इसके लिए समाज के एक निश्चित वर्ग पर सीधे
और हमेशा बोझ डाल दिया जाता है) इतना ही उसका स्वरुप होता हैl वितरण केन्द्रों पर ये ईश्वर रूप जब अपने दीन चेहरे के साथ पंक्तिबद्ध खड़े
होते हैं और उन्हें वितरण करनेवाले सामाजिक नेता जब झूठी नम्रता के साथ उन्हें कुछ
देते हैं उस समय का दृश्य ही अत्यंत विसंगत–सा दिखता हैl
गरीबों को मदद करने का काम अत्यंत महत्त्व का और बड़ा होते हुए भी उनमें ‘ईश्वर’ की संकल्पना शामिल करने की क्या
सचमुच कोई आवश्यकता है? क्या धनवान व्यक्ति में ईश्वर नहीं
होता? इस मिलावट के कारण दंभ और ढोंग को प्रतिष्ठा मिलती है
और यही बात इस सारे घटनाक्रम का आपत्तिजनक हिस्सा हैl
भारतीय संस्कृति ने सामाजिक ऋणों का बहुत विचार किया है लेकिन वह व्यक्तिगत
स्तर पर और पारिवारिक स्तर पर हैl उन्हें न
सामाजिक स्वरुप दिया गया और न उसके लिए किसी संस्था या सगठन की आवश्यकता है ऐसा
माना गयाl कितनी ही ‘सेवाभावी’ संस्थाएं उन्हें विभिन्न लोगों से मिलनेवाली राशी और सरकारी अनुदान की
राशी का अपहार करती हैं, राजनीति के अखाड़े बन जाती हैं,
वैयक्तिक शत्रुता के केंद्र बन जाती हैं और सरकारी यंत्रणा की सेवक
बनीं रहती हैंl आध्यात्मिक संप्रदाय में लोकसेवा के नाम पर
इन सब बातों का प्रवेश वास्तविक परमार्थ की दृष्टि से अत्यंत घातक हैl
क्रमशः....
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