Friday, July 1, 2016

संप्रदाय - २

मोह का क्या अर्थ है? भ्रष्टाचार का मोह, परस्त्री का मोह, निंदा करने का मोह आदि मोह होते हैंl व्यावहारिक जीवन में मोह प्रसिद्ध हैंl परन्तु इन मोहों का क्या कारण है?

मोह पांच प्रकार के होते हैं :-

१. मैं अर्थात मेरा शरीरऐसा मोह :-  वास्तविकता में मैं आत्मा हूँ और इसलिए चेतन हूँl शरीर पञ्चभूतों से बना है और अचेतन हैl मैं गोरा, मैं काला, मैं ठिंगना, मैं सुन्दर, मैं गंवार इत्यादि गलतफहमियाँ इस मोह के ही परिणाम हैंl

2.  प्रपंच या संसार जैसा दिखाई देता है वैसा ही है और वह सत्य हैऐसा मोह :-  इस मोह के कारण भयंकर स्वार्थ, लडाइयाँ, आसक्ति इत्यादि परिणाम होते हैंl

३. मैं भोक्ता हूँऐसा मोह :- वास्तव में जीव प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुःख भोगता हैl मैं अर्थात आत्मा भोग नहीं भोगती l  मैं भोग भोगता हूऐसे मोह के कारण राग, द्वेष, मत्सर, अभिमान इत्यादि परिणाम होते हैंl जीव का बोझ अकारण ही अपने ऊपर लाद लेने के कारण सुख-दुःख का अनुभव होता हैl

४. प्रपंच या संसार भोगने के लिए हैऐसा मोह :- जगत पर आज इसी मोह का राज चलता हैl प्रारब्ध के अनुसार जीव को सुख-दुःख के अनुभव होते हैंl यह सच है कि ये सुख-दुःख प्रपंच से ही उत्पन्न होते हैं, परन्तु भोग ही जीवन नहीं हैl यह बात कि प्रपंच या संसार शरीर के निर्वाह का साधन है समझ में न आने के कारण, जितने भोग के साधन अधिक होंगे सुख उतना ही अधिक होगा ऐसा भ्रम हमें होता हैl उसके कारण अन्याय, लूट-खसोट, कठोरता, निंदा, अत्याचार, सत्ताधीश होने की इच्छा इत्यादि परिणाम होते हैंl

५. विषयों में सुख हैऐसा मोह :- विषयों में सुख है ऐसा लगना बहुत बड़ा मोह हैl वास्तव में मैं अर्थात आत्मा सदैव सुखस्वरूप हैl सुख ही मेरा स्वरुप हैl मुझे बार-बार सुखी होने की आवश्यकता नहीं हैl बार-बार सुखी होने के लिए संगीत, क्रीडा, संभोग, शराब, स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ, सिनेमा, कपडे, प्रशंसा, साहित्य, यात्राएं आदि की बेवजह जरूरत बढ़ जाती हैl ये बातें नहीं होना चाहिए ऐसा कहना योग्य नहीं होगा, परन्तु सामान्य आवश्यकता और अनियंत्रित मौज-मस्ती में फर्क करना चाहिएl

इन सभी मोहों से व्यक्ति को बाहर निकालना ये किसी भी संप्रदाय का प्रमुख कार्य है और होना चाहिएl ऐसा करने के बजाय यह मोह वृद्धिंगत हो ऐसी यदि संप्रदाय की कार्यशैली हो तो फिर उस संप्रदाय को परमार्थ की किस बात के लिए आवश्यकता है? अनेक प्रकार के क्लब उसी के लिए बने हैंl नोकरी, तरक्की, संतति, आरोग्य, विवाह, शिक्षा, तबादला आदि प्रपंच के मसलों का यदि संप्रदाय में प्रमुखता से विचार किया जा रहा हो तो उसमें मन्त्र, तंत्र, उपासना, दान, यज्ञ आदि बातों की पैठ हो जाती हैl यही पशुबलि, मानव बलि का कारण होता हैl

भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में उनसे जो संप्रदाय प्रारंभ हुआ उसे दर्शाया हैl
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् l 
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रवीत् ll४-१ll  
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः l
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप  ll४-२ll
मैनें यह योग सूर्य को बतलायाl सूर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकू राजा को दियाl इसप्रकार परंपरा से आ रहा यह योग राजर्षि ने समझाl परन्तु बाद में वह कालान्तर में नष्ट हो गया हैl

इससे यह बात स्पष्ट है कि उस द्वापर युग में भी मोह बहुत सामर्थ्यवान थाl फिर भला कलियुग की समृद्धि के समय में वह कितना अधिक बलवान होगा!

कृष्ण, सूर्य, मनु और इक्ष्वाकू नाम ही कितने श्रेष्ठ व्यक्तियों के हैं! उन्हें सुनते ही शीश नम्रता से झुक जाता हैl कृष्ण हैं साक्षात परब्रह्म, वहीं मनु पहला मानव था! जगत को जीवन देनेवाला सूर्य और जगत का नियंत्रण तथा जगत की रक्षा करनेवाले सम्राट इक्ष्वाकूl इस प्रकार के अत्यंत श्रेष्ठ व्यक्ति संप्रदाय को श्रेष्ठ बनाते हैंl वे संप्रदाय को अपना सर्वस्व अर्पण करते हैंl संप्रदाय से कुछ लेते नहीं हैंl ऐसी दिव्य परंपरा जिस समाज में तोड़ी जाती है वह समाज कितना अभागा होगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकतीl

समाज भयानक रुढियों को थामे रहता है परन्तु कल्याणकारी संप्रदाय को त्याग देता हैl दहेज़, बहू की प्रताड़ना, उसे सताना, बकरों-मुर्गों की बलि, कर्ज लेकर श्राद्धकर्म करना, देवी-देवताओं को पुत्री का दान इत्यादि लज्जाजनक कुरीतियाँ चलती रहती हैंl परन्तु मनुष्य के जीवन में सुख, संतोष, आनंद और शान्ति देनेवाला संप्रदाय बहिष्कृत कर फेंक दिया जाता हैl

उपनिषद् और गीता की तरह अन्य ग्रंथों में भी संप्रदाय का उल्लेख खासतौर पर किया गया हैl बृहदारण्यक उपनिषद के अंतिम प्रकरण में सांप्रदायिक पुरुषों की एक लंबी-चौडी सूची दी गई हैl योगी स्वात्मारामजी की हठ प्रदीपिका के प्रारंभ में ही गुरु परंपरा बतलाई हैl सभी पारमार्थिक ग्रंथों के रचयिता अपनी-अपनी रचनाओं में परंपरा के गुरुओं का अत्यंत आदर के साथ और कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख किये बिना अपने ग्रन्थ को पूर्ण नहीं करतेl

किसी भी व्यक्ति को अध्यात्मविद्या संप्रदाय से, श्रीगुरु के द्वारा प्राप्त होती हैl परन्तु केवल विद्या का अर्थ अनुभव नहीं है यह बात ध्यान में रखना चाहिएl यह विद्या कितने ही अच्छे ढंग से समझ में आई हो और बतलाई गई हो, फिर भी वह श्रीगुरु की होती हैl यह बात अगर ध्यान में नहीं रखी जाती तो विशाल शिष्य-संख्या, वैभव, कीर्ति आदि प्राप्त होने पर वह विद्या मानों स्वयं ही निर्माण की है, ऐसा लगने लगता हैl अपने श्रीगुरु का नाम बतलाने में हीनता लगती है और संकोच होता हैl ऐसे में श्री समर्थ रामदास स्वामी को हमें समझाना पड़ता है कि
जो गुरु परंपरा चोरी l  तो एक मूर्ख  ll (दासबोध)
अर्थात जो गुरुपरंपरा बतलाने से जी चुराता है, उसे छुपाता है वह एक मूर्ख व्यक्ति हैl
 
संत ज्ञानेश्वर महाराज श्रीगुरु और संतों का वर्णन करते समय कहते हैं :
चलां कल्पतरुं चे आरव l चेतना चिंतामणी चे गांव l
बोलते जे अर्णव l पीयूषांचे ll  (पसायदान ज्ञानेश्वरी १८-१९७)
अर्थात : कल्पतरु वृक्ष होने के कारण एक स्थान पर स्थिर होता हैl संत कल्पतरु की भाँति होते हुये भी समाज में विचरण करते हैंl ऐसा कहते हैं कि कल्पतरु सभी कल्पित इच्छाएं पूर्ण करता हैl परंतु संतों कें सानिध्य में रहनेवालों की इच्छाओं पर ही विराम लग जाता हैl सारी इच्छाएं निष्कामता की सीख के कारण पैदा ही नहीं होतींl चिंतामणि एक रत्न है अतः निर्जीव है जो पास होने पर व्यक्ति की सारी चिंताएं दूर हो जाती हैंl संत सजीव चिंतामणि हैं जिनके सहवास में सारी चिंताएं समाप्त हो जाती हैंl संत अमृतवाणी से श्रोता को ब्रह्मस्वरूप का अनुभव देते हैंl

संत तुकाराम कहते हैं :-
संतांचा अतिक्रम देवपूजा जो अधर्म l
येती दगड तैसे वरी मन्त्रपुष्प देव शिरी ll
अर्थात : संतों का अनादर करने वाले, उनकी आज्ञाओं का पालन न करने वाले यदि ईश्वर की पूजा करते हैं तो वह अधर्म ही होगाl जो अभिमंत्रित पुष्प वे देवताओं पर चढ़ाएंगे  वे उन्हें पत्थरों की भांति ही लगेंगेंl  

और समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं :-
मोक्षश्रिया अलंकृत l ऐसे ही संत श्रीमंत l
जीव दरिद्री असंख्यात l नृपति केले ll
अर्थात : संत मोक्षरूपी लक्ष्मी से संपन्न हैंl उन्होंने परमार्थ लक्ष्मी से वंचित असंख्य दरिद्री जीवों को मुक्ति के द्वारा महाराजा बना दिया है अर्थात अज्ञानी लोगों को आत्मज्ञान संपन्न कर दिया हैl

वहीँ संत कबीर कहते हैं :-
तीरथ गए एक फल संत मिले फल चार l
सतगुरु मिले अनेक फल कहे कबीर विचार ll 
संत कल्पतरु हैंl कल्पतरु जिस वस्तु की कल्पना करें, उसे दे देता हैl वह एक ही स्थान पर रहता हैl वह चल नहीं सकताl संत कल्पतरु से अधिक श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे सामान्य व्यक्ति तक चलकर जाते हैंl परन्तु यदि उनकी सच्ची कृपा हो जाए तो कोई कल्पना भी शेष नहीं बचतीl

चिंतामणि सामान्य पत्थर होने के कारण अचेतन है और इसलिए बोल नहीं सकताl वह जो भी चिंता हो उसका चुपचाप निवारण करता हैl परन्तु संत चेतन चिंतामणि हैं और उनके सानिध्य में चिंताएं उत्पन्न ही नहीं होतीl

 क्रमशः....

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