Friday, July 1, 2016

संप्रदाय - अन्तिम भाग

गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र में भी संप्रदाय के सन्दर्भ में समाज की मूलभूत आवश्यकताओं की संगठन के माध्यम से पूर्ती करने का कोई विचार नहीं हैl आज की परिस्थिति में ऐसा सन्दर्भ सहायक होगा इस दृष्टि से यदि कोई छिद्रान्वेशी उसमें वैसे विचार खोज निकालने की शर्त लगा ले तो बात और हैl ज्ञानेश्वरी ग्रन्थ में ऐहिक वैभव के लिए जो भी उपाय बतलाया है वह व्यक्तिगत स्तर पर है न कि संस्था या संगठन के स्तर परl 

देखें सर्वसुखेंसहित l दैवचि मूर्तिमंत l येईल देखा काढित l तुम्हापाठी ll
ऐसे समस्त भोग भरित l होवाळ तुम्ही अनार्त l जरी स्वधर्मेक निरत l वर्ताल बापा ll
अर्थात: स्वधर्म पालन का नित्य यज्ञ यदि निष्ठा से करेंगे तो समस्त सुख और उसके उपभोग प्राप्त होकर तृप्त होंगे और समस्त सुखसमृद्धि सहित आपका भाग्य ही आपको ढूँढते हुए आयेगाl

अब प्रश्न यही है कि इस पर श्रद्धा कौन रखेगा?

स्वधर्म शब्द चुटिया, तिलक, स्पृश्य, अस्पृश्य, रुढियाँ, भस्म आदि बातों में उलझ जाने के कारण उसका स्व-कर्तव्यजैसा व्यापक अर्थ खो गया हैl सुविधा और ऐशोआराम के बीच की सीमाएं समाप्त हो गईं हैंl आवश्यकता और मौज-मस्ती के बीच का फर्क ख़त्म हो गया हैl श्रम, कौशल, अध्ययन और विद्वत्ता की प्रतिष्ठा घटकर सत्ता, संपत्ति और भोगविलासों को प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई हैl अपेक्षाएं आसमान छू रही हैंl उनकी पूर्ति के लिए स्वार्थ, लापरवाही, भ्रष्टाचार, दबाव, दादागिरी और गुंडागर्दी से जीवन व्याप्त हो गया हैl व्यक्तिगत स्तर पर सामाजिक संवेदनाएं कुंद हो जाने से उन्हें अब समाज के स्तर पर और व्यक्तिविशेष संस्थाओं के माध्यम से बचाने की और सम्हालने की नौबत आ गई हैl

आदर्श या नेतृत्व की दृष्टि से संप्रदाय को दो भागों में बांटा जाता है: देवताप्रधान और व्यक्तिप्रधानl

देवताप्रधान संप्रदाय में उसके देवता, आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान, साधना और मोक्ष का अत्यंत महत्त्व होता हैl वारकरी, दत्त, नाथ इत्यादि संप्रदायों में उनके देवता का बहुत महत्त्व होता हैl व्यक्तिप्रधान संप्रदायों में उस व्यक्ति की उपासना, चमत्कारों के अनुभव, सांसारिक कष्टों का निवारण और व्यावहारिक वैभव और संपन्नता प्राप्त करने का बहुत महत्त्व होता हैl पूज्य साईबाबा, गजानन महाराज, अक्कलकोट स्वामी आदि संप्रदायों में इन महात्माओं का ही अत्यंत महत्त्व हैl

व्यक्तिप्रधान संप्रदायों में कर्मकांड, सेवा और अनुष्ठानों की प्रतिष्ठा है और तत्त्वज्ञान से कृतार्थ संतों की फेहरिस्त ही देवता हैं तथा तत्त्वज्ञान के आधार से अनवरत कार्य चलता रहता हैl उन्हें संगठन और संपत्ति सम्हालते हुए संप्रदाय के लोगों के सांसारिक स्वास्थ्य की चिंता नहीं करना पड़तीl सांसारिक यश और वैभव धर्माचरण, निर्दोष प्रयत्न, प्रयत्नों की निरंतरता और प्रारब्ध पर निर्भर होता हैl उपासना के सामर्थ्य से और संत-महात्माओं की कृपा से जीवन में कुछ अनुकूल परिवर्तन हो सकते हैं, परन्तु तत्व-संप्रदाय में यह बात पूरीतरह व्यक्तिगत और गौण मानी जाती हैl व्यक्तिप्रधान संप्रदाय में इसका बहुत अधिक महत्त्व होता हैl तत्वप्रधान संप्रदाय का कोई भी व्यक्ति संप्रदाय से बड़ा नहीं हो सकता बल्कि उसके सच्चे श्रेष्ठ व्यक्ति देवता और संप्रदाय के महत्त्व की ही वृद्धि करते हैंl वारकरी संप्रदाय के समस्त वारकरी पंढरपुर को मुख्य क्षेत्र मानते हुए भगवान विठ्ठल को देवता मानते हैंl भजन, कीर्तन, प्रवचन, वारी(तीर्थयात्रा), व्रत और ग्रंथों के पारायण के द्वारा यह संप्रदाय कार्यशील रहता है, न कि वर्षगाँठ, प्रसाद. चन्दा और आशीर्वाद के भरोसेl ढोंग और स्वार्थ दोनों ही में हो सकते हैं परन्तु यह निश्चित है कि दोनों का मूल स्वरूप ऐसा ही हैl कुछ व्यक्तिप्रधान संप्रदायों में कुछ मात्रा में अध्यात्म-चिंतन किया जाता है परन्तु उनका मन उसमें रम नहीं सकताl संप्रदाय प्रमुख जीवित रहते या उनकी मृत्यु के पश्चात उस संप्रदाय के मुख्य आधारस्तंभों में वास्तविक प्रमुख आधारस्तंभ कौन है इस बात पर लड़ाई-झगड़े होते हैंl संप्रदाय के सदस्यों में, भक्तों में बंटवारा होता हैl संपत्ति के बारे में झगड़े होते हैंl संप्रदाय का सच्चा उत्तराधिकारी कौन है इस बात का संभ्रम होता हैl यदि ट्रस्ट बनाया हुआ हो तो ट्रस्टियों में टकराव होता हैl इन सब बातों के कारण जन- साधारण में संप्रदाय उपहास, खिल्ली, घ्रणा, अश्रद्धा इत्यादि का विषय बन जाता हैl तत्त्वप्रधान संप्रदाय की अनेक शाखाओं में या उनके मंडलों में भी इसप्रकार की बातें होती हैं परन्तु वह सब उनमें आपस में ही मर्यादित रहता है और मूल संप्रदाय का कार्य अबाधित और अनवरत चलता रहता हैl थोड़े-बहुत हेरफेर होते हैं और फिर सबकुछ ठीक-ठाक हो जाता हैl वहाँ देवता और तत्वज्ञान ही अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध होते हैंl

संप्रदाय एक संस्था है, एक संगठन हैl परन्तु उसका स्वरुप आधुनिक औद्योगिक संगठन जैसा नहीं हैl संप्रदाय का संगठन उसके सामर्थ्य के हिसाब से सुगठित या शिथिल रहता हैl इसका कारण यह है कि संप्रदाय में संगठन की अपेक्षा, उसकी बेजान प्रतिबद्धता की अपेक्षा लोगों की जीवन्तता का, उनके सक्रीय सहयोग का अधिक महत्व होता हैl संप्रदाय का स्वरुप नदी के प्रवाह की भांति हमेशा गतिशील रहता है, परन्तु वह गति सतत रूप से एक-सी नहीं रहतीl कभी-कभी वह लोगों की जाग्रत भागीदारी के कारण नीचे की ओर बहनेवाले तेज प्रवाह की भांति उच्छ्रंखल, नटखट और परिवर्तनशील हो जाती है और कभी-कभी लोगों के उदासीन रवैये के कारण पोखर या तालाब की लहरों सी मर्यादित सीमा में ठिठकी-सी रहती हैl

संप्रदाय व्यक्ति को अंगीकार करता हैl व्यक्ति अनेक प्रकार के होते हैं इसलिए संप्रदाय में विविधता रहती हैl आजकल लोगों में संकीर्णता बढ़ गई है, इसलिए संप्रदायों की संख्या भी बढ़ गई हैl ऐसी स्थिति में मनुष्य और संप्रदाय का गठजोड़ कैसे किया जाय यह प्रश्न महत्वपूर्ण बन गया हैl इसके अलावा आज के मनुष्य की परिवर्तनशीलता और संप्रदाय के कालानुरूप न होने तथा कुछ निर्जीव स्वरुप के विरोधाभास के कारण दोनों के बीच के सबंधों की उलझनें बढ़ गईं हैंl इसलिए संप्रदाय का सर्वव्यापी और सर्वतोपरी पुनर्विचार आवश्यक हो गया हैl

मनुष्य एक विशिष्टतापूर्ण प्राणी हैl उसके बर्ताव का स्वरुप ऐच्छिक हैl हरेक व्यक्ति की परवरिश अलग-अलग ढंग से होती हैl प्रत्येक व्यक्ति अपने पुरुषार्थ और अपने कर्तृत्व से अपने चरित्र, अपने अलग व्यक्तित्व का निर्माण करता हैl आद्य शंकराचार्य, ईसामसीह, मुहम्मद पैगंबर, गौतम बुद्ध, पार्श्वनाथ में से हर एक ने अलग कर्तृत्व से अपने चरित्र को गढाl परन्तु ऐसा चरित्र उस व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहता या वह उस व्यक्ति के साथ ही नष्ट भी नहीं होता; बल्कि उसके परिणाम, उसके संस्कार उस काल में और उसके पश्चात भी लंबे समय तक बने रहते हैंl यही संप्रदाय का मूल स्वरुप हैl ऐसे नूतन अलौकिक चरित्र के द्वारा संप्रदाय आलोकित होता हैl निश्चित ही ऐसे जीवन चरित्र से क्या सीख लेना और क्या नहीं यह बात प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र रूप से अपनी आवश्यकता के अनुसार और अपनी अभिरुचि के हिसाब से तय करता हैl किंबहुना ऐसी स्वतन्त्रता प्रत्येक व्यक्ति को होती हैl इसीलिये अनेक संप्रदाय बन जाते हैं और उनके प्रभाव भी भिन्न-भिन्न होते हैंl उदाहरण के रुप में रामायण से राम के आदर्श को स्वीकार करें या रावण का, यह  तय करने की स्वतन्त्रता प्रत्येक व्यक्ति को हैl

प्रत्येक मनुष्य यद्यपि स्वतंत्र होता है फिर भी उसके जीवन की एक दिशा होती है, उसका एक सुर होता है, एक लय होती हैl उसी खाके में उसे जीवन की डगर तय करनी पड़ती हैl इसके अलावा संगठन में ही मनुष्य का सामर्थ्य छुपा हैl एक अकेला व्यक्ति तुलनात्मक दृष्टि से अत्यंत दुर्बल होता है परन्तु वह संगठित होते ही सार्वभौमत्व प्राप्त कर लेता हैl मनुष्य का सार्वभौमत्व उसके संगठन में हैl संगठन व्यक्तिगत चरित्र से बनता हैl इसलिए संप्रदाय अलौकिक व्यक्तियों के संस्कारों के द्वारा  संकलित व्यवस्था हैl संप्रदाय के प्रकाश में सामान्य व्यक्ति अपने जीवन की डगर पर आगे बढ़ता हैl

संप्रदाय बेजान परंपराओं का जुआ भी बन सकते हैं, जिनके बोझ तले मनुष्य दबता जा रहा होl ऐसे संप्रदाय मनुष्य के कर्तृत्व को, कार्य को, कुशलता को, समाप्त कर देते हैंl इससे ऐसा प्रश्न उठ रहा है कि कहीं मानवता का पोषण करनेवाले, संस्कृति का संगोपन करनेवाले संप्रदाय उसके विनाश के लिए कारणीभूत तो नहीं हो रहे हैंl इसलिए आज प्रत्येक व्यक्ति को समझदारी के साथ संप्रदाय को चुनना और स्वीकार करना चाहिएl संप्रदाय को व्यावहारिक जीवन से अलग रखना चाहिए और उसे केवल पारलौकिक विचारों के घेरे में सीमित रखना चाहिएl

संप्रदाय से व्यक्तित्व का पोषण होता है, उसके व्यक्तित्व के विभिन्न अंगों को उसका पारस-सा स्पर्श होने से व्यक्ति निखर उठता हैl वह सामर्थ्यवान बनता है, निडर बनता हैl तात्पर्य है कि संप्रदाय व्यक्ति के संकुचित, स्वार्थी, बेलगाम और  एक रौ में चलने वाले जीवन को व्यापक, अध्यात्मिक, सांस्कृतिक आधारपीठ उपलब्ध कराने का कार्य करते हैं और इसलिए वे मानवता का अलंकार हैंl
|| हरि ॐ ||
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