Friday, July 1, 2016

संप्रदाय - ४

भारतीय तत्वज्ञान में कर्तव्य और आसक्ति के बीच में कभी भी कोई भ्रम, गलतफहमी या गडबडी नहीं पाई जातीl सैरसपाटा, विवाह, खेलों की प्रतियोगिताओं के लिए संसार के नित्यक्रम से यदि समय निकालना संभव है, तब परमार्थ के लिए समय क्यों नहीं निकाला जा सकता? ऐसी यात्राओं के स्थान पर हजारों-लाखों भक्तों का मेला देखकर श्रद्धा और दृढ़ हो जाती हैl स्वयं संत ज्ञानेश्वर और संत नामदेव ने एकसाथ यात्रा कर ऐसा आदर्श स्थापित किया थाl श्री समर्थ रामदास स्वामी, आद्य शंकराचार्यजी ने भी संपूर्ण भारत का भ्रमण किया थाl  

देह ही मैं हूँइस मोह से बाहर निकलने के लिए इस तप का उपयोग होता हैl व्रत का पालन करने के लिए देह को चाहे जितने भी कष्ट हों फिर भी उसकी चिंता नहीं होतीl परन्तु इसका अतिरेक न करेंl एकबार स्वयं संत तुकाराम बीमार होने के कारण पंढरपुर की वारी के लिए नहीं जा सके थेl यदि यह बात ध्यान में नहीं रखी जाय तो व्रत किसी और का और कष्ट किसी और को होता है,   ऐसी स्थिति बन जाती हैl देह को कुछ कष्ट देने की तैयारी हो जाने के बाद देह के प्रति अनावश्यक प्रेम और आसक्ति कम होने में मदद मिलती हैl

लेकिन तीर्थस्थानों पर होनेवाली गन्दगी, भक्ति के नाम पर होने वाली मूर्खता, अनुशासनहीनता और लूट-खसोट जैसी बातें समाप्त करना ही चाहिएl यह कैसी विडंबना है कि ईश्वर के गर्भगृह में तो सफाई रखना और पवित्रता का वातावरण बनाए रखना,परन्तु तीर्थक्षेत्र को गन्दगी से भरा हुआ रखनाl
कुछ यात्रा करने वाले बड़ी शान से कहते हैं कि हमारा पूरा ध्यान देवता की ओर रहता है और इसलिए गन्दगी की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाताl परन्तु वास्तव में यह दांभिकता की सीमा ही कही जायेगीl मानों तीर्थक्षेत्र से यदि सारी गन्दगी हटा दी जाय तो देवता भी वह स्थान छोड़ देंगे और यात्रा करने पर यात्रा करनेवाले लोग यदि बीमार न पड़ें तो यात्रा पूरी ही नहीं होती ऐसी गलतफहमी होने की संभावना होती हैl सभी संप्रदायों के मुखियाओं को इस बात का गंभीर चितन करना अत्यंत आवश्यक हैl कुंभमेला इस बात का एक बहुत बड़ा उदाहरण हैl पंढरपुर, काशी, द्वारका, पुरी, बदरीनाथ, रामेश्वर, गया इत्यादि स्थानों पर यात्रा की नई व्यवस्था और योजना बनाने की आवश्यकता हैl अति विशाल संख्या में यात्रियों के वहां पहुँचने के कारण प्रसाधनग्रहों, जलप्रदाय व्यवस्था, निवास व्यवस्था, भोजन व्यवस्था आदि पर दबाव आ जाने से सभी संबंधित लोगों को उसके परिणाम भुगतना पड़ते हैंl इसके फलस्वरूप सारी व्यवस्था चरमरा जाती हैl गन्दगी के अंबार लग जाते हैंl दान और दान के लिए जोर-जबरदस्ती इन दो बातों में प्रकाश और अन्धकार जितना विरोध हैl दक्षिणा और दक्षिणा के लिए गाली-गलौच, भला-बुरा कहना, डराना-धमकाना धर्म की सीधेतौर पर हत्या ही हैl
संप्रदाय के ग्रन्थ एकबार निश्चित होने से क्या पढ़ेंऐसा प्रश्न शेष नहीं रहताl तत्त्वज्ञान की मजबूत बुनियाद के बिना वास्तविक अर्थ में कोई भी संप्रदाय जीवित नहीं रह सकताl संप्रदाय - (ऋण) तत्त्वज्ञान = रूढ़ियाँ + मनोरंजन + भोलापन  ऐसा स्पष्ट समीकरण प्रस्तुत किया जा सकता हैl संप्रदाय के ग्रन्थ अनेक हों फिर भी उनका तत्त्वज्ञान एक ही होना चाहिएl भिन्न-भिन्न शैली होने से उसी तत्त्वज्ञान को अलग-अलग तरह से अच्छीतरह समझ कर निश्चय होने में सहायता मिलती हैl यदि ऐसा न हो रहा हो तो एक ही ग्रन्थ का अनेक वर्षों तक सतत अध्ययन करना पड़ता हैl आजकल पढ़े-लिखे लोग संप्रदाय में प्रवेश करते हैं उस समय इस दृष्टि से कुछ समस्याएं पैदा होती हैंl उच्च शिक्षा के कारण और अनेक ग्रंथों की उपलब्धता होने के कारण खूब पढ़ने की इच्छा होती हैl परन्तु बुनियाद अच्छीतरह तैयार न होने के कारण मन में असमंजस की स्थिति रहती हैl यह कैसे होता है  उसका एक उदाहरण देखें :
१. श्री गोंदवलेकर महाराज के प्रवचन : ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज  राम और नाम के अलावा कुछ भी बोलने नहीं देतेl  और वहीँ श्री जे. कृष्णमुर्ती सहज हो रहा सहवास, चुनाव रहित संज्ञान इत्यादि तरीकों से बात करना असंभव बना देते हैंl
२. संत तुकाराम के गाथा नामक ग्रन्थ में भाव-प्रेम - उपासना भक्ति - ज्ञानोत्तर भक्ति  का मार्ग बतलाया हैंl  वहीँ रमण महर्षि हर जगह स्वका प्रथक्करण करते हैंl
३. श्री गुरुचरित्र में चमत्कार कर्मकांड श्रद्धा  पर बल दिया गया हैl वहीँ योगी अरविद प्रकृति, विश्वरचना, अतिमानस, अस्तित्व के सात तार  इत्यादि तरह से गूढ़वाद प्रस्तुत करते हैं और ज्ञानेश्वरी, दासबोध जैसे ग्रन्थ वेदान्त का उद्घोष करते हैंl
ये ग्रन्थ जीवन को एक निश्चित दिशा और आकार देनेवाले हैंl यदि जीवन का वास्तविक सन्दर्भ और अनुभवों की वैयक्तिक भिन्नता के सन्दर्भ के साथ इन ग्रंथों को पढ़ा जाय तो उसके सूत्र ध्यान में आना कठिन नहीं होगाl ग्रन्थ एक साधन हैंl  वे मार्गदर्शन करते हैंl साधन अनेक हैं और मार्ग भी विविध हैं इसलिए उनमें अनेकत्व हैl 
श्री गोंदवलेकर महाराजजी के प्रवचन, गुरुचरित्र इत्यादि ग्रन्थ हमेशा व्यावहारिक जीवन का सन्दर्भ बनाए रखते हैंl संत एकनाथजी का भागवत ग्रन्थ, दासबोध और ज्ञानेश्वरी जैसे ग्रन्थ और रमण महर्षि, योगी अरविंद, जे, कृष्णमूर्ति आदि के ग्रन्थ जीवन के सूत्र खोजने में सहायता करते हैंl इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने अनुभव के अनुसार ऐसे विविध ग्रंथों को पढ़ना चाहिए अन्यथा ऐसे ग्रंथों का सुसंवाद और उनकी एकार्थता अर्थात उनकी एक राय होना ध्यान में न आने से, सब प्रकार के ग्रंथों को पढ़ने के कारण, अंतःकरण में द्विधा परिस्थिति बनकर किंकर्तव्यविमूढता हो सकती हैl गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र इन तीन ग्रंथों (प्रस्थानत्रयी) का संप्रदाय के अनुसार और शास्त्रीय पद्धति से सूक्ष्म अध्ययन होने पर अन्य ग्रंथों को पढ़ने की आवश्यकता कम हो जाती हैl यदि अन्य ग्रंथों का अध्ययन किया भी जाय तो भी उनकी संगति या मेल अच्छीतरह लगाया जा सकने के कारण कोई असमंजस नहीं होताl पांडित्य, प्रवचन और चर्चा करने की क्षमता हो जाय ऐसा पठन और अध्ययन करने का हेतु नहीं है और होना भी नहीं चाहिएl परमार्थ क्या है, उसका क्या हेतु है और उसे कैसे साध्य किया जाय यह भलीभांति जान लेने पर पढ़ने और अध्ययन करने का उद्देश पूरा हो जाता हैl
साधना में और ध्येय में कोई सुस्ती या ढील न हो इसके लिए सतत श्रवण करना पड़ता हैl “तत् श्रवणम्, तत् चिन्तनम्, तत् कथनम् ऐसी उपनिषदों की आज्ञा हैl वही सुनो, उसीका चिंतन करो और वही बतलाओ ऐसा इस आज्ञा का अर्थ हैl
प्रत्येक संप्रदाय में उपदेश की पद्धति और नाम-मन्त्र अलग-अलग होते हैंl फिर भी उस प्रत्येक उपदेश का तत् त्वम् - असिइस महावाक्य के साथ संबंध होता हैl ऐसा समझें कि वह तुम होका अर्थ थोड़े-बहुत फर्क के साथ हरेक संप्रदाय में एक-सा ही हैl इससे द्वैती और अद्वैती लोगों में मनमुटाव नहीं होंगेl अत्यंत उच्च स्तर पर इन मतों के मतान्तर बहुत होने के बावजूद सदाचार, सुविचार, उपासना इत्यादि बातें सामान्य स्तर पर एक-सी ही हैंl  नाम में सगुण और निर्गुण एकसाथ आ जाते हैंl अद्वैत का अनुभव होने तक साधना द्वैत के साथ ही चलती है यह बात सभी को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक हैl सगुण का विचार द्वैत का और निर्गुण का विचार अद्वैत का होता हैl
कान में मन्त्र फूंकना, मदिरा का तीर्थ, बलिप्रथा आदि बातें जिस संप्रदाय में होती हैं उस पर संत तुकाराम महाराज ने कुठाराघात किये हैंl अनावश्यक गूढता, टीम-टाम और अर्थहीन रूढ़ियाँ संप्रदाय को मूल उद्देश और ध्येय से परे ले जाती हैं, भटका देती हैंl इतना ही नहीं बल्कि संप्रदाय के साथ ही परमार्थ भी बदनाम हो जाता हैl वैसे ही परमार्थ एक गूढ़ विषय है, उसमें यदि गूढ़ व्यक्ति, गूढ़ वातावरण या माहौल और गूढ़ शब्दों का मेल हो तो सामान्य व्यक्ति दबाव में आ जाता हैl 
वारकरी संप्रदाय अत्यंत खुला संप्रदाय हैl इसके वारी (यात्रा), कीर्तन, हरिपाठ इत्यादि व्रतों के निमित्त से इसमें नया प्रवेश लेनेवाला सांप्रदायिक व्यक्ति भी तुरंत उसमें घुलमिल जाता हैl रामकृष्ण संप्रदाय ने पुरानी रुढियों से हटकर एक नई लीक बनाई हैl वहां जाति, धर्म की संकल्पनाओं के लिए कोई गुंजाइश नहीं हैl
किसी भी संप्रदाय के व्रत, नियम, आचार इत्यादि मन और इन्द्रियों के संयम के लिए उपयोगी होते हैंl उनके द्वारा इन्द्रियों का और मन का संयम हो जाए ऐसी अपेक्षा रहती हैl संप्रदाय के नियम इस संयम के साधन हैंl वे मुख्य नहीं हैंl वरना नियम नियमों की खातिर और व्रत व्रतों की खातिर बन जाते हैं और एकबार वे निबट जाएँ तो उसके बाद दैनंदिन जीवन से संयम का कोई संबंध ही नहीं रहताl  फिर नियमों और व्रतों का शुमार ढोंग में हो जाता हैl इसीकारण किसी नियम का निष्ठा से पालन करने वाले व्यक्ति अपने रोजाना के जीवन में अनाचार करते नजर आ सकते हैंl इन व्रतों की और नियमों की स्वयं उस साप्रदायिक व्यक्ति और उससे संबंधितों को परेशानी हो सकती हैl सांप्रदायिक व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा बना रहकर यदि वह जीवित रह सका तभी संप्रदाय के अनुसार साधना कर वह उसका फल पा सकेगाl
अगर मधुमेह की बीमारी हो और ऐसे में एकादशी का उपवास करे तो जो होना है वह होके रहेगाl ईश्वर उसके पेट में घुसकर उसकी रक्त शर्करा ठीक नहीं करेगाl ऐसी बीमारी में थोड़े थोड़े समय के पश्चात कुछ न कुछ खाना आवश्यक हैl इस प्रकार की दिक्कतों पर दयालू संत तुकाराम उपाय बताते हैं कि राम म्हणे मी ग्रासो-ग्रासी l तो चि जेवला उपवासी ll” अर्थात जो भोजन हम रोज करते हैं वही अगर प्रत्येक कौर के साथ अपने देवता का स्मरण कर ग्रहण करें तो उस भोजन को भी एकादशी के व्रत का फल प्राप्त हो जाता हैl
संप्रदाय के नियम और व्रत का यथार्थ रूप में पालन करनेवाले साधक को उसकी इसी बात का अहंकार हो जाने की संभावना रहती हैl अहंकार के कारण वह उन नियमों का और व्रतों का बड़ी कड़ाई से पालन करता हैl फिर वह केवल नियमों की खातिर अर्थात अपने अहंकार की खातिर ही जीता है और इस प्रकार के नियमों का ठीक से पालन नहीं करने वालों के प्रति वह तुच्छता का भाव रखता हैl अत्यंत छोटे घर, दौड़-भाग वाला जीवन, परिवार के सदस्यों की पसंद नापसंदगी, अलग-अलग अभिरुचियाँ, सीमित आय वाली आर्थिक परिस्थिति आदि बातों का विचार कर अपनी साधना पद्धति निश्चित करने की आवश्यकता हैl हमारी साधना के कारण यदि तनाव निर्मित हो रहा हो तो वह हम पर भी असर करता हैl ऐसे तनावपूर्ण वातावरण में साधना कैसे की जा सकती है? इन सब बातों का समर्थ रामदास स्वामी ने उपाय बतलाया हैl  वे कहते हैं : नियमा वाचोन राहो नये l नियमा मध्ये सापडो नये ll” अर्थात नित्य के नियम, व्रत होना चाहिए परन्तु उन्हें अपनी गर्दन का जुआ न बनने देंl स्थल, काल, परिस्थिति इत्यादि का विचार जरूर करना चाहिएl धर्म में जिस प्रकार आपद्धर्म की कल्पना स्वीकार की गई है, वैसी ही दृष्टि से विचार यहाँ भी होना चाहिएl
क्रमशः....

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