Friday, July 1, 2016

संप्रदाय - १

संप्रदाय अर्थात परंपरा पहले से और पीछे से आगे की ओर जो चलता आ रहा है ऐसा ज्ञानl
अनेक लोगों को ऐसा लगता है कि संप्रदाय केवल परमार्थ का ही होना चाहिएl परन्तु ऐसा कोई नियम नहीं हैl संगीत कला के घराने ( उदाहरणार्थ : किराना, ग्वालियर, जयपुर इत्यादि), कुश्ती की कुछ परंपराएं (भारतीय, जापानी, ग्रीकोरोमन इत्यादि) और साहित्य की शैलियाँ (जैसे: छायावाद, गूढ़वाद, वास्तववाद, दलित आदि ) भी संप्रदाय ही हैंl

संप्रदाय अर्थात सम्यक प्रदानl सम्यक का अर्थ है ऐसा जिसमें समस्त विचार कर रीति और नियम निश्चित किये गए होंl प्रदान अर्थात गुरु द्वारा उनके अपने गुरु से प्राप्त ज्ञान शिष्य को, उसे समझ में आये इसप्रकार बतलानाl
बदलते समय और परिश्थिति का विचार कर उसमें मामूली बदलाव होने से भी कुछ बिगड़ता नहीं हैl धोती - पाजामा या पतलून, कुर्सी या बिछावन, ग्रंथों को रेशमी कपडे में लपेटा जाय या प्लास्टिक की थैली में रखा जाय आदि जैसे बदलाव होते हैं और होना भी चाहिएl संप्रदाय की अवधारणा बहुत पुरानी हैl मुण्डक उपनिषद् में संप्रदाय का वर्णन हैl

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता l
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय जेष्ठपुत्राय प्राह ll (मुण्डक १-१)
सभी देवताओं में पहले ब्रह्मदेव का जन्म हुआl वे ही इस जगत का निर्माण कर इसे सम्हालते हैंl संसार में जितनी भी विद्याएँ हैं उन सभी का आधार ज्ञानरूप आत्मा हैl ब्रह्मदेव ने अपने जेष्ठ पुत्र अथर्वा को ऐसी ब्रह्मविद्या बतलाईl

अगले मंत्र में यह बतलाया है कि वह ब्रह्मविद्या अथर्वा से आगे  कैसे फ़ैलीl
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माSथर्वा तां पुरोवाचान्गीरे ब्रह्मविद्याम् l
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह भारद्वाजोSअंगिरसे परावरम् ll (मुंडक १-२)
पिछले व्यक्ति ने आगे आनेवाले व्यक्ति को विद्या देनी हैl  इसतरह यह ब्रह्मविद्या ब्रह्मदेव ने अथर्वा को, अथर्वा ने अंगी को, अंगी ने सत्यवहा को और सत्यवहा ने अंगिरस ऋषि को दीl

विष्णु और शंकर से चले आ रहे संप्रदाय करीबकरीब सभी को ज्ञात हैंl मुण्डक उपनिषद् में ब्रह्मदेव से चला आ रहा संप्रदाय बतलाया हैl
इन दो मन्त्रों से यह समझा जा सकता है कि संप्रदाय का क्या अर्थ हैl कोई भी संप्रदाय सामान्य व्यक्ति से शुरू नहीं होताl  ब्रह्मदेव, शंकर और विष्णु ये सभी ईश्वर के ही रूप हैंl दतात्रेय में भी इन तीनों देवताओं का अंश हैl गणेशजी शंकर के पुत्र हैंl मनुष्य की बुद्धि में अनेक दोष हो सकते हैं, परन्तु ईश्वर सर्वज्ञ होने के कारण उनकी बुद्धि में वे दोष नहीं होतेl मनुष्य को भ्रम होता हैl एक ही बस्तु भिन्न नजर आती हैl वह अनेक गलतियाँ करता हैl उसकी इन्द्रियाँ अच्छीतरह काम नहीं करतींl वह लोभी और स्वार्थी होने के कारण उसे जो लाभदायक हो, उसे ही वह सत्य कहता हैl इसलिए मनुष्य को साधना करके मुक्त होना पड़ता हैl 

भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण मूलरूप से ही मुक्त हैंl उस ईश्वर ने ही जगत का निर्माण किया हैl वे मुक्त होने के कारण मोक्ष का क्या अर्थ है यह उन्हें ही भलीभांति ज्ञात हैl उन्होंने ही जगत का निर्माण किया है इसलिए जगत का वास्तविक ज्ञान भी उन्हें ही हैl इसलिए ईश्वर के बनाए हुए वेद और उपनिषदों में जो ज्ञान बतलाया है उस पर सांप्रदायिक लोग पूर्ण विश्वास करते हैंl
वेद और उपनिषदों का अर्थ समझने में बहुत अंतर हो सकता हैl इसलिए छोटे- बड़े कई संप्रदाय बन गएl उदाहरण के रुप में वेदों को माननेवालों में द्वैती हैं और अद्वैती भी हैंl द्वैत संप्रदाय में मध्व और वल्लभ के रूप में उपभेद हैंl अद्वैती संप्रदाय में शुद्धाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि प्रकार हैंl उसीतरह वेदों को न माननेवालों में बौद्ध, जैन इत्यादि संप्रदाय प्रारंभ हुएl

इन सभी संप्रदायों के ज्ञानी व्यक्ति अपनी-अपनी पद्धति से उपासना, नियम, व्रत इत्यादि का पालन कर अपने-अपने संप्रदाय में बतलाया हुआ अनुभव लेते हैं और आगे आनेवाले शिष्यों को यह अनुभव क्यों लेना चाहिए, वह कैसे प्राप्त होगा और अनुभव प्राप्त होने पर क्या होता है इत्यादि बातें समझाकर बतलाते हैंl इस तरह संप्रदाय चलता रहता हैl
ईशावास्य उपनिषद् में संप्रदाय का उल्लेख अप्रत्यक्ष रूप से कुछ घुमाफिरा कर किया हैl उसमें कहा है                   
अन्यदेवाहुर्विद्ययाSन्यदाहुरविद्यया l इति शुश्रुम धीराणां नस्तद् विचचक्षिरे ll १० ||   
अर्थात  विचारक और ज्ञानी पुरुष ऐसा बतलाते हैं और अच्छीतरह समझाते हैं कि ब्रह्मविद्या का फल भिन्न होता है और व्यावहारिक विद्या का लाभ भिन्न हैl यहाँ समझाकर बतलाने वाले विचारक और ज्ञानी पुरुष का अर्थ है उस संप्रदाय के श्रेष्ठ व्यक्तिl इस मन्त्र के धीर शब्द का अर्थ है वह व्यक्ति जो विवेकी, विचारी और धैर्यवान हैl ये बातें परमार्थ के लिए अत्यंत आवश्यक हैl

कठ उपनिषद् में मनुष्य के जीवन के सांसारिक या प्रापंचिक और पारमार्थिक ऐसे दो भाग किये गए  हैंl इनमें से सांसारिक जीवन जीने के लिए किसी को भी कुछ बतलाना नहीं पड़ताl वैसी इच्छा सहज ही होती हैl मनुष्य यदि विवेकी, विचारी और धैर्यवान हो तो उसे पारमार्थिक जीवन का महत्त्व ज्ञात रहता है और उस प्रकार से वह बर्ताव भी कर सकता हैl परमार्थ के लिए मन को आवश्यक निर्देश देकर संयमित करना, इन्द्रियों को काबू में रखना, वैराग्य, श्रद्धा, समाधान और कष्टों को आनंद से सहने की तैयारी की आवश्यकता होती हैl इन सब बातों के लिए बड़े धैर्य की आवश्यकया होती हैl
जिनके जीवन में प्रापंचिक (सांसारिक) जीवन का बहुत अधिक महत्त्व है, वे इनमें से कुछ भी नहीं कर सकतेl ऐसे लोग जब किसी भी संप्रदाय में बहुत अधिक संख्या में प्रवेश हासिल करते हैं, उस समय उस संप्रदाय को ही प्रपंच का या सांसारिक स्वरुप प्राप्त होता हैl मठ, यात्रा, कोई पारायण, प्रसाद आदि उपरी दिखावे की बातें चलती रहती हैं परन्तु उसमें परमार्थ के वास्तविक वैभव का दर्शन नहीं होताl संत ज्ञानेश्वर महाराज संप्रदाय के नष्ट होने का भी यही कार बतलाते हैंl

कैसा नेणों मोहो वाढिन्नला l तेणे बहुतेक काळू व्यर्थ गेला l
म्हणोनी योगु हा लोपला l लोकीं इये ll  (ज्ञानेश्वरी ४-२६) 
अर्थात मोह के कारण संप्रदाय नष्ट हो जाता हैl मोह बढ रहा है यह बात मोह के कारण ही ध्यान में नहीं आती और अगर कोई इसे बतलाता हैं तो वह बात भी समझ में नहीं आतीl यदि वह समझ में आ भी जाए तो उनमें उसमें बदलाव करने का साहस नहीं होताl

क्रमशः....

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