Tuesday, December 6, 2016

हिन्दू धर्म - एक सामान्य रुपरेखा - २

                                शमो दमस्तपः शौचं क्षांतिरार्जवमेव च  l
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजं  l l  (१८ – ४२)
मन पर पूर्ण नियंत्रण, इन्द्रियों का संयम, ध्येयपूर्ण जीवन, अंतर्बाह्य पवित्रता, क्षमाशीलता, सरल स्वभाव, धर्म और धार्मिक संस्कारों का तांत्रिक ज्ञान, ब्रह्म का शास्त्रविहित ज्ञान, वेदों पर पूर्ण श्रद्धा इन गुणोंवाले दल को ब्राह्मण कहते हैं l यजन–याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह ब्राह्मणों के कर्म हैं l पुरोहित का व्यवसाय ब्राह्मण के स्वभाव के अनुरूप है l स्वयं यज्ञ करना, औरों से करवाना, अपने स्वभाव के अनुरूप पठन-पाठन करना, दान देना और लेना ये सभी ब्राह्मणों के कर्म हैं l दान पर ही चरितार्थ की निर्भरता होने के कारण इस वर्ण के व्यक्ति धनाढ्य होने की संभावना बहुत ही कम होती है l पहले की कथाओं की शुरुआत “एक दरिद्र ब्राह्मण था ...” ऐसी हुआ करती थी l आज ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत कम हो गई है l साहूकारी, खेती, व्यापार, उद्योग आदि व्यवसायों में ब्राह्मणों का प्रवेश होने से ब्राह्मण विशेष गुणसंपदा उनमें स्वाभाविक रूप से ही कम हो गई है l धूम्रपान, मांसभक्षण, मदिरापान इत्यादि भी उनके जीवन में पैठ पा गए हैं l साथ ही शम, दम, शौच, क्षमा आदि गुण कम होते जा रहे हैं l “ब्राह्मण साहूकार “ जैसे शब्द संयोजन में बड़ी विचित्रता है l साहूकारी वैश्य वृत्ति के व्यक्ति को ही करना चाहिये l साहूकारी के ब्याज लेना, रेहन या गिरवी रखना, वसूली करना, तगादा करना, कुर्की और जप्ती करना आदि कार्य ब्राह्मणवृत्ति से अत्यंत विसंगत हैं l ब्राह्मण का सत्ताधीश होने में भी अंतर्विरोध है l क्षमाशील और सरल मन के व्यक्ति सत्ता सम्हाल ही नहीं सकते l राजनीति के दांवपेंच, षड्यंत्र और कुचक्रों का ब्राह्मण वृत्ति से कोई मेल नहीं होता l ब्राह्मण के गुण अध्यापन के लिए और चिकित्सा के लिए अत्यंत अनुकूल हैं l आज ये व्यवसाय वैश्य वृत्ति से ग्रस्त हैं l उपयुक्त पदवी और बुद्धिमत्ता के साथ यदि ब्राह्मण के गुण शिक्षक या वैद्य और डाक्टर में न हों तो समाज में विद्यार्थी और मरीज के साथ संबंध सुसंगत और उचित नहीं हो सकते l उनमें अनेक तनाव पैदा हो जाते हैं l यही आज हो गया है और हो रहा है l समाज के हर स्तर से शिक्षक और वैद्य या डाक्टर तैयार होने में कोई बुराई नहीं है और न उसमें कोई आपत्ति हो सकती है l लेकिन उपर्युक्त गुण संपत्ति उनमें है या नहीं इसे अवश्य देखना चाहिए l पदवी, आरक्षण, सिफारिश और रिश्वत के सहारे बनने वाले शिक्षकों को बाद में इन गुणों का संपादन करने की कोशिश निश्चित ही करनी चाहिए l यदि ऐसा नहीं हुआ तो पूरक व्यवसाय, अध्ययन का अभाव, अशुद्ध उच्चारण, बुरी लतें, कामचोरी आदि बातों से ग्रसित अध्यापक समाज का बड़ा नुकसान करते हैं l l प्रज्ञा, प्रतिभा और प्रभाव का अभिरुचि और अभ्यासपूर्वक किया हुआ विकास अध्यापन के लिए अनिवार्य होता है l अच्छे अंक हासिल कर या आरक्षण के अंतर्गत चिकित्सा महाविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को भी कोर्स के एक हिस्से के रूप में उपरोक्त ब्राह्मण वर्ण के गुणों को अपने व्यक्तित्व में ढालना चाहिए l वरना कठोर व्यवहार करनेवाले, व्यसनग्रस्त, लापरवाह, लोभी, ठग, फंसाकर रखनेवाले, अध्ययनहीन, झूठी नम्रता और मिठास जैसे दुर्गुणवाले वैद्य या डाक्टर तैयार होते हैं l वैद्य या डाक्टर और रोगी व्यक्ति का आपसी सामंजस्य नष्ट हो जाता है l बार बार क़ानून का डर दिखाया जाता है l इलाज का खर्च रोगी की औकात के बाहर की बात बन जाती है और स्वास्थ्य की रक्षा एक भयानक समस्या बन जाती है l गीता में आगे बतलाया है कि:- 
                                सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत  l
सर्वारंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः  l l (१८ – ४८)

गुणविशेष समुदाय से सुसंगत कर्म में यदि कुछ नापसंद बातें भी हों फिर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि अग्नि जैसे धुंएँ से दूषित होता है उसीतरह प्रत्येक के कर्म में कुछ न कुछ अनचाहा हिस्सा होता है और वैसे ही दूसरे के कर्म में भी कुछ भाग पसंदीदा होता है l ब्राह्मण के गुणों से युक्त व्यक्ति सत्ताधीश नहीं हो सकता l सत्ता के साथ मिलनेवाला वैभव, मानसम्मान और प्रसिद्धी कितनी भी आकर्षक क्यों न हो फिर भी उसे अपना ही काम करना चाहिए l क्षत्रिय के गुणों से संपन्न व्यक्ति को ब्राह्मण के गुणों वाले जीवन में शान्ति, सुचारुता और स्वास्थ्य का आकर्षण हो सकता है l क्षत्रिय के जीवन की परेशानियाँ, लड़ाइयाँ, जीवन की अनिश्चितता, षडयंत्र आदि बातें कितनी भी पीडादायक लगें, फिर भी उसने उन्हें संतोष के साथ स्वीकार करना चाहिए l ब्राह्मण और क्षत्रिय व्यक्ति को वैश्य के गुणसंपन्न व्यक्ति की अतुल संपत्ति, दानशीलता और लेनदेन वाले जीवन का आकर्षण होगा l वैश्य वृत्ति वाले व्यक्ति को ब्राह्मण की विद्वत्ता और क्षत्रिय के पराक्रम की चाहत या इच्छा हो सकती है l शूद्र के गुण वाले व्यक्ति को इन सभी का आकर्षण लगना स्वाभाविक है l चिंतामुक्त, बिना किसी जिम्मेदारीवाला, कर्तव्यदक्ष, जिसके बिना सभी का काम अटकता है ऐसे शूद्र के कर्म में दिलचस्पी हो सकती है l जिम्मेदारी से बचने के लिए पदोन्नति नकारनेवाले ऐसी ही वृत्ति के व्यक्ति होते हैं l किसी भी क्षेत्र में नोकरी करने वाले जब दूसरे क्रम के पद पर रहना पसंद करें तो वे शूद्रवृत्ति के होते हैं l ऐसे लोगों के बिना अर्थात ही कोई भी काम नहीं होता l सभी सरकारी और गैरसरकारी या निजी क्षेत्र की नोकरी करने वालों की शूद्रों में गणना होती है l फिर वे चाहे जिस किसी भी पद पर हों l नियोजित कार्य को पूर्णता तक पहुंचाना और उसमें मदद करना शूद्रों का काम है l अध्यापन, शासन, खेती, व्यापार और वैस्यवृत्ति के व्यवसायों के लिए नौकरों की सहायता की आवश्यकता होती ही है l  वे सब शूद्र होते हैं l केवल झाडू लगानेवाले, मजदूर और चपरासी को शूद्र नहीं कह सकते l शूद्र वर्ण के विषय में यह वस्तुस्थिति यदि ठीकतरह से ध्यान में रखेंगे तो एक तरफ तीन वर्ण और दूसरी ओर यह वर्ण ऐसी बराबरी की प्रतिष्ठा उन्हें मिल सकेगी l
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं  l
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजं  l l  (१८ -४३)
शौर्य, तेज, धैर्य, सजगता, शत्रु को पीठ न दिखाना, दान और स्वामीभाव क्षत्रिय वर्ण के लक्षण हैं l शासक, सैनिक, पुलिस कैसे होना चाहिए यही बात इस श्लोक में बतलाई गई है l शूरता, वीरता उनके स्वभाव में ही होना चाहिए  l झूठा उत्साह काम नहीं आता l दरिद्री ब्राह्मण की तरह ही शूरवीर राजकुमार की कथाएं प्रसिद्ध हैं l जिसकी सिर्फ उपस्थिति से सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है उसे तेजस्वी कहते हैं l पराक्रम, त्याग, आत्मविश्वास, शासक होने का रोब या शान; इन सब बातों से तेज निर्माण होता है l धीरज और सजगता जैसे गुण यदि न हों तो युद्ध या शासन करना संभव ही  नहीं होता l रोब या शान का मतलब हेकड़ी, मगरूरी, घमंड, मस्ती या दूसरे को तुच्छ समझना नहीं है l क्षात्र गुणों के विकास के साथ आनेवाली वह एक सहज अभिव्यक्ति है l अपने पराक्रम से प्राप्त धन संपत्ति सुपात्र को दान करना क्षत्रिय का कर्त्तव्य ही है l यह पात्रता जाति पर निर्भर नहीं होती l गुणों के अनुसार निश्चित होती है l वैश्यवृत्ति के लक्षण इस प्रकार हैं :-
कृषि गौरक्ष्य वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजं  l
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि  स्वभावजं  l l ( १८-४४)
खेती, पशुपालन, व्यापार, उद्योग, बैंकिंग, कर-व्यवसाय इत्यादि का वैश्यवृत्ति में समावेश होता है l इन सभी के लिए मेहनत, नियोजन, सततता या निरंतरता और ज्ञान की आवश्यकता होती है l वैश्यवृत्ति सामान्य या हल्के दर्जे का काम है ऐसी बहुत बड़ी गलतफहमी थी और अब भी है l आज का पढा-लिखा युवा वर्ग खेती और पशुपालन को कम दर्जे का काम समझने लगे हैं l व्यापार और उद्योग में अच्छी कमाई होने के कारण उसका आकर्षण अधिक लगता है l इस काम में यदि “गुणसंपत्ति” में कमीं हो तो नाकामी हाथ लगती है l उद्योगपति का मतलब शानदार बंगला, इंपोर्टेड कारें, पांचसितारा होटलों में दावतें आदि जैसा समीकरण एक धोखा है l इन सबके पीछे कड़ी मेहनत, उत्साह, साहस, ज्ञान, योजना, प्रसंगावधान, अध्ययन, दूरदृष्टि आदि गुण होने चाहिए l योग्य काम के लिए योग्य व्यक्ति चुनकर उसे जिम्मेदारी सौंपने का कौशल चाहिए l धोखा या खतरा मोल लेने का माद्दा होना चाहिए l कायदे क़ानून की जानकारी होना चाहिए l शासक वर्ग को अपने अनुकूल करने की महारत होना चाहिए l मजदूरों, कर्मचारियों की देखभाल करना आना चाहिए l यह सारी गुण संपदा जब धन संपत्ति और वैभव दिलाती है, उस समय यदि उसे दान देने की प्रवृत्ति का साथ ना मिले तो जनता के रोष का, गुस्से का पात्र बनना पड़ता है l उसी से खर्चों के अनेक मद तैयार होते हैं l सच्ची सामाजिक जिम्मेदारी के तहत दान और चन्दा देना जरुरी होता है l विद्वानों की सहायता करनी होती है l कला, क्रीडा और विज्ञान की प्रगति के लिए लगन से काम करना होता है l धर्म की रक्षा की बड़ी जिम्मेदारी भी इन्हें ही उठानी होती है l
क्रमशः...

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