Wednesday, December 7, 2016

हिन्दू धर्म - एक सामान्य रुपरेखा - ३

जिस समाज में वर्णों के अलावा अन्य जमातें निर्माण होती हैं, दुर्लक्षित होती हैं और बनी रहती हैं, उस समाज को घुन लग गई है ऐसा समझना चाहिए l जो धारा मुख्य प्रवाह में शामिल नहीं होती, वह किनारों का कटाव किये बिना नहीं रहती l इस बारे में उस धारा की भी कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं l जंगल, नदी और सागर का परंपरागत परिवेश चरितार्थ के कारण छोड़ा नहीं जाता l लेकिन सिर्फ इसी कारण से मुख्य समाज की प्रगति से ध्यान नहीं हटना चाहिए l वह प्रगति अपने तक खींच कर लाने का काम उन्हें करना ही चाहिए l कोई एक एकलव्य निर्माण होनेवाले समाज को स्वयं अपनी प्रगति करना संभव नहीं है l अंगूठा काटकर मांगनेवाला इतिहास जब हजारों साल तक ध्यान में रहता हो और उसे लगातार ताजा करना पड़ता हो, उस समय यह मानी हुई बात है कि ऐसे अंगूठे वाले एकलव्य बड़ी संख्या में निर्माण नहीं होते l अवसर मिलना चाहिए यह बात जितनी सच है, उतना ही यह भी सच है कि अवसर निर्माण करने पड़ते हैं l मालवण के एक होटल में कप-प्लेट धोने वाला सदू पाटिल मौके को खींचकर झपटकर विधायक स. का. पाटिल बना और आगे मुम्बई का बेताज बादशाह बना l दिल्ली में केंदीय मंत्री बना l  क्या उसे किसी ने अवसर दिया था? सभाओं, मोर्चों और घोषणाओं की बैसाखियों की उसे जरूरत नहीं पड़ी l आज जो महाराष्ट्र में उद्योगपति हैं, वे या उनके पूर्वज गरीब ही थे l उन्हें किसने मौक़ा या अवसर दिया था? सहकारिता क्षेत्र में आज बहुत सारे अवसर निर्मित हुए हैं l भ्रष्टाचार होते हुए भी आज इस क्षेत्र से बहुत सी आशाएं हैं l

चार आश्रम हिन्दू धर्म का दूसरा महत्वपूर्ण अंग है l मनुष्य के जीवन के चार स्वाभाविक पड़ाव यहाँ बतलाये गए हैं l उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार से ब्रह्मचर्य आश्रम की शुरुआत होती है l आयु के करीब ६ से २४ वें वर्ष तक इस आश्रम का समय है l यह कालावधि आगे के जीवन की नींव है l विद्यार्जन के साथ साथ संयम, अनुशासन, आरोग्य आदर्शों का अनुकरण, अच्छी अभिरुचियाँ अपनाना और विकसित करना तथा उपासना जीवन के अत्यंत महत्वपूर्ण मूल्य हैं जिन्हें इसी काल में अर्जित करना पड़ता है l मुक्त सामाजिक व्यवस्था के मजनूं और केवल सामाजिक न्याय का विचार करने वाली तत्वपरंपरा के प्रक्षुब्ध युवक इन मूल्यों को समझने के लिए भी तैयार नहीं हैं l शिवाजी महाराज की राजधानी रायगड पर जाकर बीयर पीने वाले विद्यार्थी और अनेक उत्सवों में उपद्रव, दंगा-मस्ती और ऊधम मचाने वाले जवान लडके ऐसी संस्कृति से पैदा होते हैं l नशीले पदार्थ और विकृत वासनापूर्ति के चक्र में पडा हुआ विद्यार्थी जिस समाज में है ऐसा घुन लगा, सडा हुआ समाज किस प्रकार संतोष के साथ रह सकता है? ब्रह्मचारी की कल्पना जिस संस्कृति में नहीं पाई जाती, उस संस्कृति को कुमारी माता और अनाथ बच्चों की समस्या छिन्न-भिन्न कर देती है l इससे अनेक प्रकार के मनोरोगी तैयार होते हैं, अपराधी तैयार होते हैं l अपराध करने की प्रवृत्ति तैयार होती है l अनियंत्रित भोगविलास और व्यसन प्रतिष्ठा पाते हैं l इसके लिए बेहिसाब धन आवश्यक होता है l इसी से भ्रष्टाचार का राक्षस जन्म लेता है l यदि इस आश्रम के अनुरूप जीवन न हो तो सिनेमा के वाहियात बेहूदा श्रृंगार, अभिनेता और अभिनेत्रियों के लफड़ों से भरी सिनेमा संबंधित पत्रिकाओं, अपराध और असंयमित रक्तपात के घातक संस्कार कोमल मन पर होते है l
इसके बाद गृहस्थाश्रम करीब २५ से ५५ वर्ष की आयु तक होता है l विवाह, घर, व्यवसाय ही इस आश्रम की इमारत की नींव है l इस नींव पर संस्कृति, दानधर्म, सामाजिक जिम्मेदारियाँ और और राजनैतिक अहसास की दीवारें खड़ी हैं l अनेकों कर्तव्यों के स्तंभों पर यह इमारत सुरक्षित रहती है l क्रीडा, श्रंगार, कला, प्रवास, यात्रा, विनोद, साहित्य, प्रेम, वात्सल्य आदि की साज-सज्जाओं से वह सुन्दर बनती है l अधिकतर लोगों को इस आश्रम में प्रवेश  पाने की आतुरता रहती है जो उसके अपने समृद्ध जीवन की अपेक्षा में होती है l इस जीवन की स्वतंत्रता बड़ी रमणीय होती है l इसी आश्रम के दौरान आत्मविश्वास का निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति होकर उसका अन्य लोगों को आधार मिलता है l व्यक्तित्व विकास की व्यावहारिक परिसीमाएं हासिल की जाती हैं l लेकिन इस इमारत पर यदि संयम और उपासना की छाया न हो तो यह तप जाती है l इसीलिए स्नान, संध्या, वैश्वदेव, नामस्मरण, तीर्थयात्रा, व्रत, त्यौहार, सामाजिक हित के कार्य इत्यादि की आवश्यकता होती है l परन्तु इस बारे में भोलेपन और ठगी को प्रोत्साहन न मिले इस बात का ध्यान रखना जरूरी है l चित्त की शान्ति का उद्देश उपासना के द्वारा साध्य हो रहा है या नहीं इस पर पूरी नजर रखनी होगी l

वानप्रस्थ आश्रम तीसरा पड़ाव है जिसमें गतिशील और क्रियाशील जीवन से निवृत्ति पाना है l आयु के ५५ से ७० वर्षों के बीच का यह काल है l परिवार, समाज और देश इनमें लिप्तता कम से कम करते जाना ही इस आश्रम की आवश्यकता है l अगली पीढ़ी के गृहस्थाश्रम में हस्तक्षेप न करते हुए जितनी हो सके और अपेक्षा हो उसके अनुसार मदद, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन देना चाहिए l हमारे आधार से अगली पीढ़ी बढे यह बात स्वाभाविक और गौरवपूर्ण है l लेकिन इस बात का अहंकार होना और उसके लिए अगली पीढी हमारे उपकारों के नीचे दबी रहे ऐसी अपेक्षा रखना दुर्बलता का लक्षण है l समाचारपत्र पढ़ना, विवाह आदि समारोहों में शामिल होना, अपने दल बनाकर घूमने जाना, बीते दिनों की यादों में खो जाना और उनको हमेंशा दुहराते, बतलाते रहना, स्वास्थ्य की बेकार चिंता में समय बिताना,बच्चों, जमाई, बहुओं और नातीपोतों की बाललीलाओं का, शिकायतों का बखान करना, ताश के खेल में मगन रहना आदि बातें वानप्रस्थ आश्रम का जीवन नहीं है l वानप्रस्थ आश्रम में वन में बिताये जाने वाले जीवन जैसी जिंदगी जीना अपेक्षित है l महाभारत के युद्ध के पश्चात और पांडवों को राज्य प्राप्ति होने के बाद धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती जंगल में जाकर रहे l मृत और पराजित कौरवों के माता पिता और जीवित तथा विजयी पांडवों की माता इन तीनों ने अपने पिछले आश्रम वाले जीवन का नए जीवन के लिए त्याग कर दिया l स्वार्थ, ईर्षा और पुत्रमोह से भरा जीवन पीछे छोड़कर धृतराष्ट्र वन में चला गया l लज्जा, अन्याय और विजय का जीवन पीछे छोड़कर कुंती भी वन में चली गई l इस आश्रम में सादा, सुगठित, नियोजित, सुन्दर और नए ध्येय की ओर ले जानेवाला  जीवन अपेक्षित है l इस नए ध्येय की दिशा ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रम की उपासना में खोजी हुई होना चाहिए l जिस ईश्वर की उपासना करनी है उसके स्वरूप को जान लेना चाहिए l जगत, जीव और ईश्वर का आपसी संबंध समझ लेना है और इन तीनों को निर्माण करने वाले ब्रह्म को जानकर उसके अनुभव के लिए साधना करना इस आश्रम का ध्येय है l गीता, उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के साथ संत साहित्य के अध्ययन, चिंतन और मनन से इस जीवन को एक नई ऊंचाई पर ले जाने की अपेक्षा है l इसके लिए श्रीगुरु की खोज कर उनके द्वारा बतलाई साधना निरंतरता से करते रहना यही इस आश्रम का जीवन है
क्रमशः...
 
 

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