Monday, December 5, 2016

हिन्दू धर्म - एक सामान्य रुपरेखा - १

वेदों की शिक्षा का गर्भितार्थ ध्यान में रखकर रचित स्मृतियों के अनुसार जीवन जीने की पद्धति को हिन्दू धर्म कहते हैं l “वैदिक” शब्द के स्थान पर हिन्दू शब्द अनाहूत रूप से आया है l आज विद्यमान इस्लाम और ईसाई धर्मों का सन्दर्भ वेदकालीन समय में नहीं होने के कारण वैदिक धर्म का अलग से नामकरण करने का प्रश्न ही नहीं था और कोई अन्य कारण भी नहीं था l इस्लाम के कुरान और ईसाईयों के बाइबल की तरह हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ “स्मृति” हैं l मनु, याज्ञवल्क्य ,भगवद्गीता आदि स्मृतियाँ हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ हैं l सभी धर्मों के धर्मग्रंथों की प्रामाणिकता के विरुद्ध विद्रोह हुए हैं l उसीतरह स्मृतिग्रंथों के विरुद्ध भी विद्रोह हुए हैं और अभी भी हो रहे हैं l स्पिनोझा और व्होल्तेयर ने ज्यू और ईसाई धर्मग्रंथों को चुनौतियाँ दी थीं l

आज भी करीब करीब बीस स्मृति ग्रंथ उपलब्ध हैं l कितने ही ग्रन्थ नष्ट हो चुके हैं पर इसकी कोई जानकारी भी उपलब्ध नहीं है l लेकिन इससे एक बात निश्चित रूप से ध्यान में आती है कि कोई भी स्मृति एकमेव ग्रन्थ न होकर उसमें बदलाव की संभावना थी l उस समय यदि ऐसी संभावना थी तो आज भी वैसी संभावना रहने में कोई आपत्ति या विरोध नहीं होना चाहिये l इस वस्तुस्थिति का ठीक से विचार सनातनी लोग कदाचित नहीं कर पाये हैं l कलियुग के लिए पाराशर स्मृति है ऐसा उसी स्मृति ग्रंथ के प्रारंभ में कहा गया है l
“मानुषाणां हितं धर्मो वर्तमाने कलौ युगे  l
शौचाचारस्तथावच्च वाद सत्यवती भुज  l l
अर्थात मनुस्मृति को गतकाल की स्मृति समझने में क्या आपत्ति हो सकती है ? पहले की सभी स्मृतियाँ “सर्वे नष्टा कलौ युगे”  अर्थात इस कलियुग में नष्ट  हो गई हैं – ऐसा वही स्मृति आगे बतलाती है l आपद्धर्म ही युगधर्म होने की स्थिति कलियुग में अपेक्षित होते हुए भी, उसे मन से स्वीकार करने की आवश्यकता है l यदि समझौते की भावना समाप्त हो जाती है तो फिर संतोष टिक नहीं पाता l इसके आगे की स्मृतियाँ अधिकाधिक वस्तुस्थिति के अनुरूप होती गईं l शंख स्मृति कहती है :-वृत्या शूद्र सुस्तावाद्विज्ञेयास्ते विचक्षणै:”  l  प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है इस बात का जानकार लोगों को ज्ञान है l संस्कार से वह द्विज बनता है l इस संस्कार शब्द का अर्थ क्या सिर्फ यज्ञोपवित (जनेऊ) जैसे मन्त्र संस्कार जितना ही लिया जाय? नहीं l संस्कार का अर्थ है आदर्शों के साथ एक व्यक्तित्व बनाने की परियोजना l क्या यज्ञोपवित संस्कार का आज की शिक्षा पद्धति के साथ कोई सम्बन्ध है? नहीं है l परियोजना के प्रभाव स्वरूप ही वास्तव में एक व्यक्ति बनता है l अर्थात संस्कार का अवसर यदि मिले तो परिवर्तन हो सकता है l यह बात स्मृतियों में स्वीकार्य है l प्रगति या अधोगति दोनों ही परिवर्तन हैं l यदि संस्कारों पर ध्यान नहीं दिया जाय तो उन्नत व्यक्ति अधोगति को पहुंच सकता है और यदि संस्कार किये जाएँ तो निम्न स्तर का व्यक्ति भी उन्नत हो सकता है l यह बात खुले मन से स्वीकार करना चाहिये l

स्मृति को हिन्दू धर्म के ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करने के साथ ही साथ परिस्थिति का विचार करके आज भी चार वर्ण, चार आश्रम और चार पुरुषार्थों पर आधारित जीवनपद्धति को धर्म के रूप में स्वीकार करना होगा l “आचारः प्रभवो धर्मः”  l धर्म की यह व्याख्या व्यक्ति के आचरण की दिशा बतलाती है l “धारणात धर्मः l” व्याख्या बतलाती है कि समाज जिसके आधार से अपने हित के लिए स्वयं बंधन में रहता है वही धर्म है l पहली व्याख्या जहाँ व्यक्तिनिष्ठ है वहीँ दूसरी व्याख्या समाज या समष्टिनिष्ठ है l ये व्याख्यायें संदिग्ध न होकर लचीली हैं l इस बंधन में कारावास की कल्पना नहीं है वरन वह न्याय, नीति और संयम का स्वीकार्य बंधन है l यह बंधन जब अत्याचारी बन जाता है उस समय वह धार्मिक तानाशाही बन जाता है l धर्म को देश के संविधान, क़ानून और अन्य नियमों का पूरक होना चाहिए l धर्म के बंधन का उल्लंघन कर जो अपराध हों वे शासन द्वारा भी दंडनीय होना चाहिए l धार्मिक विधिविधान यदि सामाजिक न्याय के विरोधी हों तो सामाजिक न्याय ही श्रेष्ठ माना जाना चाहिए l

चार वर्णों वाली अवधारणा आजकल बहुत बदनाम हो गई है l अपने स्वभाव की विशेषता के कारण बने समूह को वर्ण कहते हैं और जाति व्यवसाय के अनुसार निश्चित की जाती है l स्वभाव और व्यवसाय में विसंगति के कारण वर्ण और जाति में बहुत बड़ी गफलत हो गई l मनुष्य की प्रवृत्ति का किसी विशिष्ट दिशा की ओर होने वाले झुकाव को स्वभाव कह सकते हैं l स्वभाव की कुछ विशेषता, ढंग और व्यवसाय अनेक परिवारों में अभी भी चलता आ रहा है ऐसा दृष्टिगत होता है l उनसे ही जाति और परंपराएं निर्मित हुईं l आज भी नेता का पुत्र नेता, खिलाड़ी का बेटा खिलाड़ी, अभिनेता या अभिनेत्री  की संतान अभिनेता या अभिनेत्री, डाक्टर का बेटा डाक्टर, व्यापारी का बेटा व्यापारी आदि की तरह से परंपरा चलते रहना स्पष्टता से दिखाई देता है l बढई, कुम्हार, चमार, लुहार, पुरोहित इत्यादि जातियाँ इसीप्रकार बनीं l इन जातियों की जो दीवारें बन गईं वे एक विशेष भारतीय समस्या है l छोटी छोटी बाड़ें दुखदाई नहीं होतीं वरन वे हितकारी होती हैं ऐसा सोचना गलत नहीं होगा l ऐसी छोटी बाड में किसी विशिष्ट कला या व्यवसाय को शुरूआत से ही प्रोत्साहन, मार्गदर्शन और उचित वातावरण प्राप्त होता है l  इस बारे में कोई शंका नहीं की जा सकती l लेकिन ये बाड़ें जब दीवारें बन जाती हैं और अधिकाधिक ऊँची, तप्त और कंटीली बन जाती हैं, उससमय केवल खीज या चिढ पैदा करनेवाली स्थिति निर्माण होती है l वहाँ स्वार्थ में अंधत्व की पराकाष्ठा होती है l विश्वस्तर पर भी अलग अलग सन्दर्भों में ऐसी दीवारें खडी करने की कोशिशें होती रहती हैं l लेकिन सामान्य व्यक्ति को वे नजर नहीं आतीं इसलिए उन दीवारों के प्रति खीज नहीं होती l अमेरिका, यूरोप, चीन और जापान ने व्यापार की दृष्टि से बड़ी बड़ी चारदिवारियाँ खड़ी कर ली हैं l वहीँ दक्षिण अफ्रिका में वंशवाद की दीवारें थीं l ये सभी ध्वस्त होने की कगार पर हैं l इन अप्राकृतिक दीवारों का और दूसरा क्या हश्र होगा? लेकिन मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी है यह बात कालातीत है l
“चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः  l (४ – १४) 
इन शब्दों में गीता स्मृतिग्रंथ चार वर्णों की उत्पत्ति बतलाता है l वर्ण गुणों से निश्चित होता है या जन्म से इस बात का विवाद आज तक चला आ रहा है l लेकिन इस विवाद की तीव्रता इस विवाद तक ही सीमित है क्योंकि किसी भी एक वर्ण के गुणों के अनुसार हुबहू ठीक वैसा ही व्यक्ति मिलना कठिन हो गया है l फिर भी संसार का सामाजिक जीवन अच्छी तरह से चलते रहने के लिए उस विशिष्ट गुणवाले समुदायों की या वर्णों की आवश्यकता तो निश्चित रूप से है ही l यह आवश्यकता एकबार मान्य या स्वीकार्य हो तो हिंदूधर्म की एक विशिष्टता पूरीतरह ध्यान में आयेगी l गीता के अठारहवें अध्याय में इन गुणविशेष समुदायों के दल कैसे होते हैं इस बात का और उन गुणों से सुसंगत आचरण का भी वर्णन है l
क्रमशः...

 

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