Friday, December 9, 2016

हिन्दू धर्म - एक सामान्य रुपरेखा - ४

संन्यास आश्रम अंतिम आश्रम है जो वानप्रस्थ में तय किये गए ध्येय की प्राप्ति के लिए होता है l इसमें कर्म और उपासना का पूर्ण त्याग कर केवल ध्येय के अनुसंधान में जुट जाना है l अपने शरीर के साथ साथ सारे संसार के ममत्व का त्याग करना संन्यास का स्वरूप है l श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं :-
मी माझे ऐसी आठवण  l विसरले जयाचे अंतःकरण  l
पार्था तो संन्यासी जाण  l निरंतर  l l (ज्ञानेश्वरी ५-२०)
अर्थात हे अर्जुन जिस व्यक्ति के मन में “मैं और मेरा” इन दोनों की याद भी नहीं है उसे ही संन्यासी जानों l संत ज्ञानेश्वरजी की संन्यास की यह व्याख्या सब कुछ  कह जाती है l संन्यास के प्रकार, आचार और दिनचर्या आदि का यहाँ विचार करने का कोई कारण नहीं है l आज के जमाने में जो संन्यास लेने वाले लोग हैं उन्होंने संन्यास को नया आयाम दिया है जो ठीक ही है l जो भी परिस्थितियाँ मिलें उसी में संन्यस्त वृत्ति से रहना संभव है और उतना काफी है l संन्यास लेना एक अत्यंत व्यक्तिगत बात है और उसे अपने लिए निष्ठापूर्वक सम्हाले रखना जरुरी होता है l उसका फल भी उसी को मिलता है l उसे संसार से उस सफल जीवन की मान्यता प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं होती l वह आत्मरत, आत्मक्रीड और आत्मतृप्त होता है l

चारों पुरुषार्थ हिन्दू धर्म का तीसरा अंग है l मनुष्य के परिपूर्ण जीवन की रचना कैसी होनी चाहिए इसका बहुत स्पष्ट मार्गदर्शन इस धर्म में मिलता है l जीवन की इतिकर्तव्यता ध्यान में रखकर उस गंतव्यस्थान पर पहुँचाने के लिए सुनिश्चित और सर्वांगीण विचार किसी भी दूसरी जगह नहीं मिलता l ये चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष l पुरुष अर्थात मनुष्य ने जो अर्थ प्राप्त करना है उसे पुरुषार्थ कहते हैं l अर्थ का मतलब है जिसे प्राप्त करना है वह प्राप्तव्य l उसमें भी मोक्ष सर्वश्रेष्ठ प्राप्तव्य होने के कारण उसे “परमार्थ” कहते हैं l अन्य तीन सामान्य अर्थ हैं l आरंभ में ही हमने देखा था कि वैदिक धर्म को “हिन्दू धर्म” नाम बाद में मिला l इस कारण धर्म शब्द का उच्चारण करते ही अन्य अर्वाचीन धर्मों का सन्दर्भ अकारण ही परन्तु अनिवार्य रूप से आता है l धर्म शब्द का वास्तविक अर्थ “कर्तव्य” है l उदाहरण के रूप में यदि हम क्षात्रधर्म शब्द  को लें तो उसका अभिप्राय ‘क्षत्रिय का कर्तव्य’ है l गृहस्थधर्म के अंतर्गत गृहस्थाश्रम के व्यक्ति के कर्तव्य बतलाये गए हैं l हमारे अपने अपत्य के जातककर्म से लेकर विवाह संस्कार तक और माता-पिता की देखभाल, सेवा से लेकर उनके श्राद्ध कर्म तक सभी कर्म कर्तव्य अर्थात धर्म ही कहलाते हैं l इन सभी संस्कारों की विधि के साथ ही उनका हेतु भी समझ लेना चाहिये l हेतु या उद्देश का ध्यान यदि रखा जाएगा तो विधि के लिए पर्याय मिल सकता है और हो सकता है l उदाहरण के रूप में श्राद्ध में मृत व्यक्ति का स्मरण और उसके प्रति कृतज्ञता महत्व की बात है l इसके साथ जो दान-धर्म जोड़ दिया गया है उसे समय के अनुसार बदला जा सकता है l मन्त्र के स्थान पर उसके अर्थ की भावना हमारे भीतर निर्माण होना सहजता से संभव है l मंत्र के बजाय भावना का मूल्य अधिक हो सकता है l वेदों के मन्त्रों का सामर्थ्य इस युग में कम हो जाने का निर्णय संत तुकाराम महाराज ने दिया है l
“तुका म्हणे काही  l  वेदा वीर्य शक्ति नाही  l l
अर्थात संत तुकाराम कहते हैं कि वेदों की सामर्थ्य शक्ति अब ज़रा भी बाकी नहीं बची l

इसलिए मानसपूजा की तरह मानसश्राद्ध भी किया जा सकता है l पुत्रधर्म, पितृधर्म, पत्निधर्म, भ्रातृ धर्म, पडोसी-धर्म, राजधर्म, राष्ट्रधर्म इत्यादि अनेक कर्तव्य रूप धर्म पुरुषार्थ हैं l धर्म पर ईश्वर का सबसे अधिक प्रेम होता है l धर्म की रक्षा करने हेतु वह निराकार से साकार हो जाता है l “धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे l यही उसकी प्रतिज्ञा है,व्रत है l संतों का भी धर्म पर अपार प्रेम होता है l संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज धर्म के गुण गाते हैं :- “अगा स्वधर्म हां आपला  l जरी कां कठीणु जाहला  l तरी हा चि अनुष्ठिला  l भला देखें  l l ( ज्ञानेश्वरी ३ – २१९ ) अर्थात अपने धर्म कें पालन में चाहे जितनी भी कठिनाइयाँ आयें लेकिन उसी का पालन करने में ही कल्याण है l धर्म पुरुषार्थ की नींव है l
दूसरा पुरुषार्थ “अर्थ” है l “अर्थस्य पुरुषो दासः” यह भीष्म पितामह का वचन प्रसिद्ध है l भीष्म की विवशता नैतिकता के धरातल पर आधारित होने के कारण उस महापुरुष के व्यक्तित्व की उंचाई बढ़ गई है l सामान्य व्यक्ति जब अर्थ का दास बन जाता है तो वह बौना हो जाता है l संत तुकाराम की अर्थ नीति पुरुषार्थ प्राप्त करवाने वाली है जब वे कहते हैं :

“जोडोनियां धन उत्तम वेव्हारें  l उदास विचारे वेंच करी  l lअर्थात अच्छे मार्ग से धन कमाना चाहिये और उसका संग्रह करना चाहिए l लेकिन उस धन को उदासीन वृत्ति से अर्थात बिना किसी आशा के, निरपेक्ष भाव से खर्च करना चाहिए अर्थात परोपकार में खर्च करना चाहिए l भारतीय संस्कृति दरिद्रता की प्रशंसा बिलकुल नहीं करती, उसके कोई गुण नहीं गाती बल्कि वैभव की अपेक्षा करती है l ऋग्वेद  में कहा है कि :- “उषस्तमस्यां यशदं सुवारं दासप्रवर्ग रविमश्व बुध्यं  l अर्थात हे उषा यश, वीरपुत्र, दास और अश्वयुक्त वैभववाली संपत्ति हमें भोग के लिए प्राप्त हो l श्रीसूक्त ‘अर्थ’ शब्द की भारतीय संकल्पना स्पष्ट करता है l कौटिल्य के अर्थशास्त्र में “अर्थ” विषय का व्यापक विचार प्रस्तुत किया गया है l

“काम” तीसरा पुरुषार्थ है जिसका स्वरुप ‘इच्छा’ है l संगीत, संभोग, स्वादिष्ट भोज्यपदार्थ और सुगन्धित द्रव्य आदि इच्छा के विषय हैं l सता, स्तुति, ज्ञान, कीर्ति और वैभव की भी इच्छा होती है l इसके लिए पैसा, शिक्षा, सामर्थ्य, गुण, मित्र इत्यादि की आवश्यकता होने के कारण ये भी इच्छा के विषय हैं l इन इच्छाओं या काम की पूर्ती पुरुषार्थ है l लेकिन काम को पुरुषार्थ का दर्जा प्राप्त हो इसके लिए उसे न्याय, नीति और धर्म की मर्यादा के बंधन में रहना चाहिए l इस विषय में स्मृति ग्रन्थ गीता में कहा है : “धर्माविरुद्धो कामोहं” अर्थात धर्म उल्लंघन न करने वाला काम भगवान् की विभूति है l  “परदारा माता समान” उक्ति इस बारे में मार्गदर्शक है l

चौथा पुरुषार्थ मोक्ष या परमार्थ है l यही परम पुरुषार्थ है l मोक्ष की कल्पना बंधन सापेक्ष है l बंधन वास्तविक न होकर कल्पित है l इसलिए मोक्ष भी कल्पित होता है l फिर भी जब तक कल्पित बंधन के आघात होते रहते हैं, तबतक बंधन और मोक्ष को वास्तविक ही मानना पड़ता है l इस बंधन से छुटकारा पाने के लिए वेदों के अनुसार कर्म और उपासना करनी पड़ती है l श्रीगुरु की शरण में जाकर ज्ञान अर्जित करना पड़ता है l कर्म से चित्त शुद्ध होता है और उपासना से वह शांत होता है l ज्ञान से चित्त चैतन्य में विलीन होता है l यह लीनता जब सहजता से होने लगे तब वह विज्ञान बन जाता है l बचे हुए प्रारब्ध के कारण जीवनमुक्ति की अवस्था प्राप्त होती है l संक्षेप में मोक्ष का ऐसा स्वरुप है l यद्यपि यहाँ पांच दस वाक्यों में यह बतलाया गया है, लेकिन इसके लिए दृढ़ निश्चय, गुरुकृपा, ईश्वरानुग्रह, शास्त्रकृपा और सदाचार के आधार से निरंतर चलने वाली साधना की आवश्यकता होती है l

हिन्दू धर्म केवल गर्व करने की बात नहीं है l साथ ही यह अनदेखी या नजरअंदाज करने वाली बात  भी नहीं है l  हिंदुत्व पूरे जीवन की जिम्मेदारी है l यह जिम्मेदारी जितने अधिक हिन्दू प्रतीति के साथ निभायेंगे उतना ही हिंदुत्व गौरवशाली और गरिमामय होगा l तब वह ताकत, रोटी, दवा और पैसे के प्रलोभनों से, प्रचार माध्यमों से विचलित नहीं होगा l ऐसा हिंदुत्व हम सभी को प्राप्त हो ऐसी ईश्वर चरणों में प्रार्थना है l

|| हरि ॐ ||
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