विषय टाल देने पर केवल स्थूल विषय
ही दूर होते हैं परन्तु उनका चिंतन नहीं थमता l किन्तु आत्मसाक्षात्कार के कारण विषयों का खिंचाव या आकर्षण ही समाप्त हो
जाता है l विषयों को टाले बिना अर्थात वैराग्य के बिना
आत्मसाक्षात्कार की पूर्व तैयारी के लिए आवश्यक स्थिरता प्राप्त नहीं होती
l विषयों को टालने के लिए मनोनिग्रह आवश्यक है l
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः l
वश्यात्मना तु यतता शक्योSवाप्तुमुपायतः l l ( गीता ६-३६)
अर्थात जो अपने मन को स्वाधीन नहीं
रख पाते हैं उन्हें योग साध्य होना कठिन है l परन्तु मन को
अपने स्वाधीन रखनेवाले प्रयत्नशील साधक को साधना के द्वारा वह प्राप्त हो सकता है
l
तो फिर ऐसी साधना कौन-सी है? साधना यदि स्वभाव के अनुकूल होती है तो वह
सुखावह होती है l स्वभाव यदि
स्नेहशील हो तो प्रेमलक्षणाभक्ति ही योग्य रहेगी l यदि
स्वभाव आलोचनात्मक परन्तु भावनाप्रधान हो तो ज्ञानलक्षणाभक्ति अनुकूल रहेगी
l केवल आलोचक या प्रखर बुद्धिमान और विरक्त स्वभाव रहने पर
सांख्ययोग का अभ्यास सुलभता से संभव होगा l स्वभाव निश्चयी,
एकान्तप्रिय और शरीर लचीला हो तो अष्टांगयोग का अभ्यास कर सकते हैं l लेकिन यदि सगुण ईश्वर की लौ लगी हो तो चित्त को आनंदरूप कर उसी के स्मरण
में लीन रहा जा सकता है l उस अनंत ईश्वर की याद एक क्षण भी न
भूलें इस इच्छा से सूरदासजी भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं “बसो मेरे नैनन में
नंदलाल” l श्री एकनाथ महाराज के श्रीगुरु जनार्दन स्वामीजी
जो प्रेम और ज्ञान के स्वरुप थे साधना के बारे में कहते हैं :- “मन स्वस्थ चित्तीं निश्चल मध्यरात्री l गुरुगुह्याचे एकांतीं रिघावें
हो l l”
अर्थात मध्यरात्री की शांत बेला
में निश्चल शरीर, स्वस्थ मन, गुरुवाक्य और उस वाक्य के आश्रय से एकात्मता की परम
स्थिति पाना अर्थात आत्मस्वरूप में लीन हो जाना है l
यह सारी साधना की वास्तविक कृति का
वर्णन है l श्रीगुरु का बतलाया ज्ञान केवल
पूर्णतया समझ लेना ही काफी है ऐसा समझने वाले लोगों को एकनाथ महाराज का यह उपदेश
जरुर ध्यान में रखना चाहिए l अष्टांगयोग के चार सूत्र
प्रसिद्ध ही हैं l सामान्य रूप से साधना के इन सभी प्रकारों
का ‘मन एकाग्र करना, चित्त समाहित करना’ एक हिस्सा है l
नरक के द्वार का काम रूपी स्तंभ
बहुत मजबूत है l मन को संयमित
करने की कोशिश करनेवाले साधक को बार-बार इससे टकराना पड़ता है और इसमें अधिकतर समय
उसका कपाल फूट जाता है l काम का अर्थ है इच्छा l हमारी पाँचों इन्द्रियों के विषयों के पांच काम हैं शब्दकाम, स्पर्शकाम,
रूप काम, रसकाम और गंधकाम l इनमें से गंधकाम सबसे सौम्य है
जबकि स्पर्शकाम सबसे अधिक तीव्र l रसकाम जीवन के अंतिम क्षण
तक टिकने वाला है जबकि शब्दकाम व रूपकाम का दूरी से भोग होने के कारण कुछ अस्पष्ट
हैं l वास्तविक रूप से संगीत, साहित्य, स्तुति, विद्या और
व्यवहार के निमित्त उत्पन्न होने वाले शब्द काम का विषय क्यों बने? शब्द का उद्गम
कैसे होता है? स्वरयंत्र से बाहर निकलने वाली ध्वनि दन्त, तालू, जिव्हा, होंट आदि
आठ स्थानों पर आवश्यकता अनुसार टकराती है और बचपन से प्राप्त शिक्षा के कारण
विचारपूर्वक प्रयत्न न करते हुए भी हजारों शब्दोच्चार होने लगते हैं l इन उच्चारों में प्राणशक्ति की बहुत बड़ी हिस्सेदारी सामान्यतया लोगों के
ध्यान में नहीं आती l यह प्राणशक्ति आत्मा की सत्ता पर ही
कार्य करती है l प्राणों का प्राण, कानों का कान, आँखों की
आँख (केनोपनिषद) के रूप में आत्मा का वर्णन यही बात बतलाता है l अर्थात वास्तव में प्रत्येक शब्द का उद्गम, फिर वो चाहे कहीं पर भी हुआ
हो या न हो आत्मा की ओर इंगित करता है l शब्द सुननेवाले कान
भी प्राणशक्ति के आधार से ही सुन सकते हैं और उस शब्द के संबंध में किसी भी प्रकार
का विचार करने वाला या संगीत का उपभोग करने वाला मन भी प्राणशक्ति के बल पर ही
“मन’ के रूप में सामने आता है l जिसके कारण मन मनन कर सकता
है वह भी आत्मा ही है l लेकिन वह मन उस आत्मा को नहीं जान
सकता (अध्यात्म उपनिषद्) l अब यदि हम देखें तो शब्द का
उच्चार, उसका श्रवण और उसके संबंध में विचार इन तीनों स्थानों पर इन्द्रिय, प्राण
और आत्मा उसी अनुक्रम से स्पष्टरूप से दृष्टिगत होते हैं l
ऐसी परिस्थिति में, मैं जो आत्मरूप हूँ, उसे आत्मरूप शब्दों का काम कैसे होगा?
क्योंकि यदि शब्द को कार्य माना जाए तो उसमें उसका कारण ‘आत्मा’ उपादान रूप में
होना ही चाहिए l शब्द उत्पन्न करने वाले बाकी के साधन
नैमित्तिक कारण हैं l इसका सीधा और स्पष्ट अर्थ है कि
प्रत्येक शब्द में ‘मैं’ अनुस्यूत होता है l अतः जिसमें
‘मैं’ ही भरा हुआ हूँ उसकी इच्छा मुझे ही कैसे हो सकेगी? लेकिन फिर भी संगीत,
स्तुति, काव्यरचना आदि शब्दों की अभिलाषा रहती है l कुछ शब्द
अनचाहे से भी रहते हैं l कुछ शब्द ख़ुशी देते हैं तो कुछ दुःख
देते हैं l तत्वज्ञान और वास्तविकता में इस तरह बड़ा अंतर नजर
आता है l इसलिए साधना में शब्दरूप विषय का त्याग कर शब्दों
के उद्गम और उनमें भरी हुई आत्मा अनुभव में आने तक मौन और एकांत स्वीकार करना ही
पड़ता है l इसतरह का साक्षात्कार अल्पकाल के लिए होना काफी
नहीं है बल्कि वह पक्का, अपरिवर्तनीय अर्थात हमेशा टिकनेवाला और अपरोक्ष अर्थात
प्रत्यक्ष, साक्षात, सच्चा होना चाहिए l ऐसे साक्षात्कार के
पश्चात फिर कितने ही शब्द कानों पर क्यों न पड़ें उनके उद्गम का अनुसंधान बना रहने
के कारण उनके अनुकूल या प्रतिकूल होने का भाव निर्माण नहीं होता और साधक को
राग-द्वेष तक की अधोगति प्राप्त नहीं होती l बची हुई आयु में
प्रारब्ध के अनुसार कितना भी शब्दकाम उपस्थित क्यों न हो, फिर भी आत्मानुभव के
कारण हमेशा रहनेवाले सुख के पार्श्वसंगीत में कोई व्यवधान नहीं होता l यही अनुभव व्यक्त करते समय संत एकनाथ महाराज कहते हैं :-
“एका जनार्दनी भोग प्रारब्धाचा l हरिकृपे त्याचा नाश झाला
l l “
अर्थात आत्मानुभव होने के पश्चात
प्रारब्ध से जो भी भोग प्राप्त हों उनका कोई प्रभाव साधक पर नहीं पड़ता अर्थात उनका
नाश हो जाता है l
दृढ़ और अपरोक्ष आत्मज्ञान होने तक
ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्यंत आवश्यक है l प्रश्नोपनिषद में
दिए हुए वर्णन के अनुसार पिप्पलाद मुनि के पास आत्मविद्या का ज्ञान प्राप्त करने
हेतु आये हुए छह शिष्यों को उन्होंने पहले ही बतलाया कि “आप सब लोग मेरे पास एक
वर्ष ब्रह्मचर्य और श्रद्धा के व्रत को लेकर रहें l एक वर्ष
पश्चात आपके मन में जो भी प्रश्न हों उन्हें मुझसे पूछें l”
उतावले शिष्य और हड़बड़ी वाले श्रीगुरु ऐसी परिस्थिति उन गुरु-शिष्यों के साथ नहीं
थी और न उनमें स्वच्छंद शिष्य और बहके हुए गुरु जैसा सामंजस्य था l शब्दकाम का चिंतन जिस तरह किया है उसी पद्धति से शेष ‘काम’ का भी चिंतन
किया जा सकता है l साधकों को श्री ज्ञानेश्वर महाराज का
ज्ञानेश्वरी ग्रन्थ में दिया हुआ आश्वासन याद रखना चाहिए l
“ अपने मन को स्वाधीन रखकर सभी ‘कामों’ या
इच्छाओं की पूर्ण शान्ति कर चुके साधक के लिए आत्मा वस्तुतः और देशतः दूर नहीं
रहती l”
क्रमशः...
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