जिसप्रकार भोजन खाना पड़ता है, चबाना पड़ता है और यदि पाचनशक्ति अच्छी हुई तो वह भोजन शरीर में समाकर उसे
पुष्टता देता है उसीप्रकार तत्वज्ञान का श्रवण करना होता है, उस पर चिंतन कर अपनी प्रकृति के अनुसार निश्चय करना पड़ता है l तत्वज्ञान के द्वारा जीव, जगत और जगत के कारण का
स्वरुप और उनके आपसी संबंध को निश्चित करने के बाद उस जगत के कारण का अपने उस
निश्चय के अनुसार दर्शन प्राप्त करने के लिए या अनुभूति होने के लिए साधना करनी
पड़ती है l उपनिषदों में, गीता में और
संत साहित्य में तत्वज्ञान, उसके अनुभव के साधन और साधना के
लिए आवश्यक अधिकार का स्पष्टता से वर्णन किया गया है l इनमें
से किसी भी बात में कोई भी ढील नहीं बरती जा सकती l
सर्वमान्य अद्वैत वेदान्त का तत्वज्ञान उनके उपविभागों के साथ स्पष्टता से समझकर
उनमें से किसी एक को अंगीकार करना एक अत्यंत कठिन कार्य है l
लेकिन तत्वज्ञान को निश्चित किये बिना साधन का निश्चय नहीं किया जा सकता l हरप्रकार की मानसिक और शारिरिक अनुकूलता पाए बिना साधना की ही नहीं जा
सकती l परमार्थ के मूलग्रन्थ और उन पर अधिकारी व्यक्तियों
द्वारा लिखित टीका अगर एक ओर हटा दें तो बाकी प्रकाशित होनेवाले पारमार्थिक
साहित्य का क्या दृश्य नजर आता है? उनमें प्रसिद्ध संतों के
चरित्र और उन संतों के अनेक व्यक्तियों को हुए सच्चे झूठे अनुभव, तत्वज्ञान का कभी न समाप्त होनेवाला विचार, तीर्थक्षेत्रों
की जानकारी और उनके छायाचित्र, साधना के बारे में कुछ विचार
आदि का विपुल विवरण होता है l भावनात्मक कवितायें और सीधे
सादे स्फुट विचार भी बहुतायत में मिलते हैं l लेकिन साधना
करने के लिए आवश्यक प्रारंभिक तैयारी या अधिकार के बारे में बहुत ही थोड़ा विचार
पाया जाता है l एकबार व्यावहारिक स्तर पर अनुचित और अनावश्यक
बातों को एक ओर हटाकर आगे बढ़ा जा सकता है, लेकिन परमार्थ के
मार्ग में वैसा करना संभव नहीं है l साधना करने के लिए
आवश्यक अधिकार जैसी बात सर्वसाधारण लोगों के बूते के बाहर की बात है l इसकारण उसके बारे में पढ़ना या सुनना उनके लिए अत्यंत कष्टदायक होता है
l इस प्रकार से कष्टकारी मानने वालों को शिवाजी के गुरु मराठी संत
समर्थ रामदास स्वामी ने मूर्ख कहा है l
परमार्थ के वास्तविक और सच्चे विचारों का वर्णन करते
समय शरीर की क्षणभंगुरता, संसार का मिथ्या होना और जीवन में अवगुणों की प्रबलता का
विचार भी अवश्य किया जाता है l ये तीनों ही विचार मूर्ख
व्यक्तियों को क्रोधित कर देते हैं, जब कि विचारशील व्यक्ति
बेचैन हो जाते हैं और साधकों को पश्चात्ताप होता है l
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे l
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाSजायते पुनः l l (कठ. १-१-६)
ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति जो हो चुके हैं और जो आज
विद्यमान हैं उन सबका आचरण सत्य का अनुसरण क्यों करता है क्योंकि यदि मृत्यु ही मनुष्य का धर्म है जो अनाज की तरह ही
जन्म लेकर जीर्ण-शीर्ण होता है और अनाज की तरह ही पुनः जन्म लेता है तो फिर
असत्य को स्वीकार क्यों किया जाय? “सत्यमेव जयते नानृतम्”
श्रुति की ऐसी उद्घोषणा ही है l सत्य को स्वीकार करने से इस
चक्र से छुटकारा मिलता है यही वह सत्य की वास्तविक विजय है l
श्रीमद् भगवद्गीता बतलाती है :-
त्रिविधि नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः l
कामः क्रोधस्तथा लोभः तस्मादेतत्त्रयंत्यजेत l l (१६-२१)
काम के बांयें
स्तम्भ, क्रोध की मेहराब और लोभ के दाहिने स्तंभ वाले नरक के द्वार को साधक को हमेंशा ही टालना चाहिए
क्योंकि वह आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है l वह क्यों और
किस तरह अधोगति को ले जाता है? आत्मा, उसकी
उन्नति और अवनति या नाश तत्वज्ञान के गहन चिंतन का विषय है l
काम, क्रोध, लोभ आदि का त्याग
आत्मोन्नति की साधना की प्रारंभिक तैयारी के लिए अत्यावश्यक है l “आत्मानं नावसादयेत l” यह स्मृति वाक्य या
“येकेचात्महनोजनाः” ऐसी श्रुति का यदि विचार कर सुसंगत अर्थ स्वीकार न किया जाए तो
गड़बड़ हो जाती है l ऊपर बतलाये गीता के इस एक ही श्लोक के
आधार से तत्वज्ञान का और साधनों का साधक आवश्यक विचार कर सकता है l
ब्रह्मतत्व जब देहरूपी उपाधि में पाया जाता है तब उसे
ही “आत्मा” कहते है l साधक के इसप्रकार के अहंकार का लय यदि न हो पाए तो जीव
अपनेआप को कर्ता समझता है (अहंकार विमुढात्मा कर्ताहमिति मन्यते) और “मैं शरीर
हूँ” इस निश्चय तथा कर्तृत्व, भोक्तृत्व, अनुकूल-प्रतिकूल द्वंद्वों और त्रिपुटी के जाल में पड़कर अत्यंत दीन-हीन बन
जाता है l इस जाल से छूटने के लिए प्रयत्नपूर्वक साधना करनी
पड़ती है l साधना से आत्मा की प्राप्ति नहीं होती वरन वह
आत्मा नित्यप्राप्त और जीव का स्वरुप ही है यह बात वेदान्त का चिंतन करने वाले
प्रत्येक व्यक्ति को अच्छीतरह ज्ञात रहती है l इस
वस्तुस्थिति के परिप्रेक्ष में साधक का शरीर उपाधि ही है l
उस आत्मा का बुद्धिरूप आईने में जो प्रतिबिंब होता है उसे ही जीव कहते हैं
l यह जीव (प्रतिबिंब) अहंकार के कारण स्वयं को भूलकर मैं शरीर ही
हूँ ऐसी समझ के साथ रहता है l इस प्रकार ब्रह्मतत्व की देह
या शरीर तक अवनति होती जाती है l शरीर विनाशी होने के कारण
इस समझ के परिणाम स्वरुप ब्रह्म जो कि अविनाशी है, शरीर के
साथ नष्ट होनेवाला-सा लगता है l यही आत्मनाश, आत्महत्या या आत्मावसादन कहलाता है l इसके विपरीत
प्रक्रिया शुरू होने पर उसे आत्मोद्धार या आत्मोन्नति कहते हैं l इस प्रक्रिया का प्रारंभ संत ज्ञानेश्वर जी की इस ओवी में बतलाया गया है
:-
“ हा विचारुनि अहंकार सांडिजे l मग असतीच वस्तू होईजे l
तरी आपली स्वस्ति सहजे l आपण केली l l (ज्ञानेश्वरी ६-७१)
अर्थात साधक को
विचारपूर्वक देह के अहंकार को छोड देना होगा फिर उसे अपने मूलस्वरूप अर्थात
ब्रह्मरूप हो जाना है l तभी साधक अपना कल्याण कर सकता है l
इस ओवी का अपने हिसाब से अर्थ लगाकर केवल वेदान्त की
सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रक्रियाओं में खो जाने में ख़ुशी माननेवाले और अपनेआप को
“पहुंचे हुए” समझनेवाले अनेक लोग हैं l लेकिन आद्य शंकराचार्य ने इस संबंध में स्पष्ट निर्णय दिया है:-
अविज्ञाते परे तत्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला l
अविज्ञातेपि परे तत्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला l l (विवेकचूडामणी ६१)
अर्थात
वेदान्तशास्त्र का उत्कृष्ट चिंतन करने के पश्चात भी यदि नित्य प्राप्त परमतत्व का
दृढ़, अपरिवर्तनीय अपरोक्ष अनुभव नहीं मिल पाए तो वह चिंतन व्यर्थ
हो जाता है l लेकिन साथ ही उस परमतत्व का अनुभव प्राप्त होने
पर भी वह चिन्तन व्यर्थ ही होता है l
इस श्लोक के द्वारा विशाल, गहन, प्रखर आदि प्रकार से वेदान्त चिंतन का (
पूर्वोत्तर पक्ष विचार सहित) जो वर्णन किया जाता है उसे उसका स्थान बतला दिया गया
है l तात्पर्य यह है कि जो भी साधना करनी है वह आत्मप्राप्ति
के लिए नहीं वरन अविद्या की निवृत्ति के लिए की जानी है l
केवल शब्दों के द्वारा अविद्या का निरसन करने पर आत्मप्राप्ति होगी ऐसी भोलीभाली,
सुविधाजनक और साधना के, त्याग के और विरक्ति
के कष्ट को टालनेवाली समझ साधक को कहाँ पहुंचाएगी? काम,
क्रोध और लोभ मानों अविद्या के साकार रूप ही हैं l अतः भगवद्गीता के तेरह से सतरहवें अध्यायों की साधनाओं में उसका विचार
किया गया है l गीता के पहले छह अध्याय “त्वं” पद के जबकि
दूसरे छह अध्याय “तत” पद के विवेचक हैं l अंतिम छह अध्याय
“असि” पद की विवेचना करनेवाले होने के कारण उनमें साधनाओं का विचार अपरिहार्य रूप
से आया है l “त्वं” अर्थात जीव, ‘तत’
अर्थात ब्रह्म और ‘असि’ अर्थात हो l अर्थात तुम(जीव) ब्रह्म हो
l परन्तु फिर ब्रह्म होते हुए भी तुम जीव क्यों बने? इसका कारण है काम, क्रोध, दंभ,
लोभ, दर्प, गर्व,
त्रिगुण, त्रिपुटी, इत्यादि
l आत्मज्ञान होने के पश्चात ये सभी कारण दूर होंगे या ये कारण दूर
होने के पश्चात आत्मज्ञान होगा ऐसा विकट प्रश्न उपस्थित होता है l इसका उत्तर जितना लगता है उतना कठिन नहीं है l उस
उत्तर की सर्वसाधारण दिशा गीता में बतलाई गई है और वह अत्यंत विचार करने योग्य है
l संतुलित विचारों के द्वारा साधना के लिए अत्यंत अनुकूल निश्चय
निश्चित रूप से हो सकेगा l
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः l
रसवर्जं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते l l (गीता २-५९)
अर्थात निराहार
पुरुष के विषय निवृत्त हो जाते हैं परन्तु उसका रस अर्थात वासना बनी रहती है l परन्तु वह भी ब्रह्मानंद प्राप्त होने पर निवृत्त हो जाती है l
क्रमशः...
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